राष्ट्र के गौरव (Rashtra Ke Gaurav)

अतीत से वर्तमान का भाग्य सूर्य प्रखर तेजस्वी होता है। भविष्य के सपनों को गगनचुम्बी उड़ान भरने हेतु सशक्त, सुदृढ़ परों की उपलब्धि होती है। विजयशाली, गौरवशाली इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षर बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
किसी भी जीवंत समाज के उत्थान-पतन का माध्यम या कारण होता है। आदर्शों से प्रेरणा लेकर तिनके का सहारा, टिमटिमाते दीप का संबल, सटीक दिशावलोकन करते प्रायः देखा जाता है भविष्य के ताने-बाने को बुनने का संयंत्र अनुभव प्रतीत होता है।
सपनों को साकार करने का आधार निर्माण होने लगता है। संघर्ष की शिखा से सर्वस्व न्योछावर की गूंज सुनाई देने लगती है। शोणित की सरिता सराबोर अनुमोदन अंत: करण को आह्लादित करता परिलक्षित होता है।
 
 
युवानी को जंगल बनाने की ताबड़तोड़ हो मानो क्षितिज को लांघने का वामन अनुष्ठान साफल्य को प्राप्त होने लगता है। सर्वत्र त्याग, समर्पण, आत्मोत्सर्ग का बोलवाला मानो गगन को निगलने हेतु मुंह फैलाने लगता है। ऐसा निरा, निष्कपट, निश्छल भक्ति से ओतप्रोत सुदीर्घ पंक्तिबद्ध, अविराम परम्परा सीमाओं पर भूकने वाले श्वानों की टोली को भयाक्रांत कर बंदिनी मातृभूमि को घोर कारा की यातना से मुक्ति के अभियान को गौरव प्रदान करने वाले गौरवशाली, स्वाभिमानी कालखण्ड के श्रीचरणों में जीवन सुमन भेंट रूपी उदात्त भाव की झांकी प्रस्तुत है।

जीवन परिचय

नाम : जगराम सिंह
माता का नाम : स्व. श्रीमती गोमती देवी
पिता का नाम : स्व. श्री इन्दल सिंह
शिक्षा : स्नातकोत्तर- अंग्रेजी
अध्यापन :  1989 से 1994 तक हायर सेकेण्डरी स्कूल में अंग्रेजी विषय का अध्यापन
कार्यक्षेत्र : 1994 से अब तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक
साहित्य सेवा :
अंग्रेजी भाषा में पद्य लेखन : Glimpse of inspiration
अंग्रेजी व्याकरण में :
New Flow of Spoken English
 New Flow of General English
हिन्दी भाषा में पद्य साहित्य :
(1) काव्यांजलि – भोर
(2) काव्यांजलि – उदय
(3) काव्यांजलि – किरण
(4) काव्यांजलि – तेज
(5) काव्यांजलि – प्रभात
हिन्दी भाषा में गद्य साहित्य :
(1) भारत दर्शन
(2) माँ
(3) सामाजिक क्रांति के शिल्पी
(4) समरसता के भगीरथ
(5) उत्सव हमारे प्राण
(6) राष्ट्र के गौरव
(7) हमारी प्रार्थना
 (8) सेतुबंध

मनोगत

ये जो स्वासें हम ले रहे हैं इन स्वासों के स्वरों में समायी शक्ति को ही ईश्वर कहते हैं। ईश्वर को देखकर नहीं अपितु उसकी उपस्थिति की अनुभूति कर ही जाना या समझा जा सकता है। यह सत्ता तो रोम-रोम में, कण-कण में, सर्वत्र, चहुंदिशि अपनी जागृत उपस्थिति की अनुभूति कराती रहती है।
यह जो चराचर जगत दृष्टिगोचर हो रहा है वह वास्तव में ईश्वर का ही एक सुंदर रूप है। यह मंगलरूप ही सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के ताने-बाने से गुंथा हुआ है। शास्त्र की शब्दावली में कहें तो यह जो सत्य है वही ईश्वर है । जहाँ-जहाँ सत्य परिलक्षित होता है वहाँ-वहाँ ईश्वरीय उपस्थिति का आभास होता है यह जो सत्य है न, यही जगत के लिए शिव अर्थात् कल्याणकारी है। शिव ही सही अर्थों में सुन्दर होता है। जो-जो सृष्टि में सुन्दर वाय नहीं अंतर से वह सबका सब शिव सत्य स्वरूप परमात्मा है इसलिए तो विद्वत्जन ईश्वर को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् भी कहकर यशोगान करते है। यह मनोहरी सृष्टि प्रभु ने बड़े लगन एवं प्रेमपूर्वक रची है। जिसमें विविध रूपों, रंगों, गंधों, आकारों का यथानुकूल समावेश है। सारी सृष्टि का जर्रा जर्रा ही अपनी ओर आकर्षित कर ईश्वर के स्नेहिल आलिंगन का कानों में नित्य निमंत्रण सा देता रहता है। शेष, गणेश, सुरेश में अवर्णनीय है। चौरासी लाख योनियों के बाद यह सम्पूर्ण सृष्टि ही परमात्मा की अनुपम देन है जो नारद-शारद, जब भी श्रेष्ठ मानव योनि में जन्म लेने का सौभाग्य जीव को मिलता तब ईश्वर रचित विविधता भरी भारत रूपी सृष्टि के सान्निध्य की
लालसा प्रबल होती है।
कहा भी गया है।
दुर्लभं भारते जन्मः ।
मानुषं तत्र दुर्लभः ।।
उस पर भारत जैसी पवित्र भूमि जो ऋषियों, मुनियों, ज्ञानियों विज्ञानियों, तपस्वियों, धर्मात्माओं, वीरों, हुतात्माओं के कारण त्यागभूमि, धर्मभूमि, भावभूमि, यज्ञभूमि, कर्मभूमि, मातृभूमि, मोक्षभूमि जैसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर संबोधनों से सम्मानित हुई, जिसके लिए कोटिक सपूतों ने अपना सर्वस्व बलिदान कर उसकी गौरव गरिमा रूपी धवल ध्वजा को विश्व शिखर पर प्रस्थापित कर उसे गौरवान्वित किया। उस पर तो जन्म लेना मनुष्य के लिए अति दुर्लभ है।
प्रभु का तो मैं तन-मन-धन से और आत्मसमर्पित हो ऋणी हूँ कि जो उसने मुझ अकिंचन प्राणी पर इतना अक्षय उपकार कर अनुग्रहीत किया कि हमें भारत जैसी पुण्य भूमि पर जन्म लेने का अवसर प्रदान किया। अतः अपनी जन्म-जन्म की सम्पूर्ण संचित पूँजी इसके श्री चरणों में चढ़ाने पर ही ऋण से मुक्ति का उपाय सिद्ध होगा।
इस अपरिमित उपकार के बदले में उसकी रची रचना से निस्वार्थ प्रेम कर, अपने हृदय में स्थान देकर, जो जीव मात्र के प्रति समान वर्ताव की अपेक्षा होती है उसी पर कर्तव्यरत रहकर सेवार्थ के रूप में प्रभु द्वारा दिये हुये उपकार रूपी भेंट के बदले में अंजुलि भर सुमन भेंट करने में ही जीवन की धन्यता एवं सार्थकता निहित है।
जब जब होय धरम की हानी ।
बाढ़े अधम असुर अभिमानी ।।
तब तब धरि प्रभु मनुज शरीरा।
हरहि सदा सज्जन भव पीरा ।।
जब जब धर्म का पलड़ा कमजोर होता है तब तब अधर्म सिर चढ़ कर बोलने लगता है और सर्वत्र मनमानी का साम्राज्य व्याप्त हो जाता है सभी शुभ कार्य पैर तान करके सो जाते हैं अर्थात् लुप्तप्राय हो जाते है। कहीं भी आशा की किरण परिलक्षित नहीं होती है। घोर अंधकार मानो प्रकाश को निगलने का प्रयास करने लगता है । निराशा के उमड़ते घुमड़ते बादल झूठी दम्भ भरी गर्जना करने लगते हैं ऐसी घोर निराशा रूपी अशांत घड़ी में कोई न कोई दैदीप्यमान सितारा अंधकार के वक्ष को चीर कर बाहर आता है चाहे राम रूप में हो या कृष्ण रूप में हो, धर्मराज युधिष्ठर के रूप में हो आदि ऐसी लम्बी परम्परा की कतार है जिनका उल्लेख मेरी लेखनी के बस की बात नहीं है यह तो नारद शारद शेष द्वारा ही संभव हो सकती है परन्तु ऐसे वीरगतियों का स्मरण ही अंतर बाह्य को रोमांचित कर देता है, आह्लादित कर देता है और हृदय में विजिगीषु भाव से सराबोर कर देता है वास्तव में ऐसे अनिर्दिष्ट, त्यागी, तपस्वियों सूरवीरों, नरवीरों की गाथाएं हर आने वाले राह के पथिकों को प्रेरणा देतीं रहेंगी दिशा दर्शन कराती रहेगी। निराशा में आशा का दीप जलाती रहेंगी। महत्वकांक्षाओं का स्वप्न साकार कराती रहेगी और श्रवण, मनन, चिंतन, से जीवन जीने का पाठ पढ़ाती रहेंगी। राह के सच्चे मीत बन कर स्वयं अपनी अंगुली पकड़ाकर पग-पग पर जीवन का मार्गदर्शन कराती रहेंगी। ऐसे श्रेष्ठ जनों का जीवन उदय से लेकर अस्त तक एक तेजस्वी, समर्पित जीवन जीने का सामर्थ्य अंतः करण में जागृत करता है और सुख-दुख में समरूप रह कर मानापमान से उठकर यशापयश से विमुक्त होने का अमर संदेश देता है फलतः उन सभी का अस्तित्व ही उनका जीता जागता व्यक्तित्व बन जाता है राह की अमिट पगडंडी बन जाता है यही व्यक्तित्व उनके निरासक्त सफल कृतित्व की जनमानस के मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ जाता है जिस पर कोटिक बन्धु उन मूक पगडंडियों पर चल कर अपने जीवन के उद्दिष्ट रूपी अनुष्ठान की पूर्णाहुतिकर यशस्विता प्राप्त करते हैं धन्य हैं ऐसे लोग, धन्य हैं उनकी गाथायें जिनका जीवन आने वालों के लिए वैतरणी की मझधार में पुण्यस्वरूपा गौरूप बन गया जिसकी पूंछ पकड़कर भव पार करने का सेतु रूप साधन बन गया ऐसे दिव्य पूर्वजों का स्मरण, श्रवण, चिंतन, लेखन आदि करने का जो अत्यंत अंतस्थ मित्रों, सहयोगियों, सहभागियों, हितैषियों की असीम अनुकम्पा, मार्गदर्शन, सहयोग, सुझाव आदि का सौभाग्य रूप मिला। उससे मेरे ऐहिक एवं पारलौकिक दोनों ही लोक सुधर गये और इस पावन गंगा में डुबकी लगाकर संपूर्ण जीवन पवित्र हो गया।
इसी भगीरथी का सान्निध्य सभी स्वजनों को मिले इसी विनम्र प्रार्थना के साथ यह पुष्प सभी सुधि पाठकों के श्री चरणों में भेंट कर अपनी लेखनी रूपी सरिता के प्रवाह के विराम की करवद्ध प्रार्थना के साथ ।
धन्यवाद
जगराम सिंह

प्रस्तावना

भारत जैसी पवित्र भूमि पर अनेकों तपस्वियों, ज्ञानियों, कर्मवीरों, बलिदानी महापुरुषों ने जन्म लिया। जिन्होंने अपने त्याग, समर्पण से आदर्श चरित्र, सेवा, कर्मनिष्ठा, वीरता, प्रतिभा आदि सद्गुणों से राष्ट्र का संरक्षण, संवर्धन, संगठन जैसे उच्चादर्श प्रस्थापित किये।
प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता, परंपराओं एवं श्रेष्ठ पूर्वजों द्वारा किए गये सत्कर्मों का उज्ज्वल परिणाम है। जिसका अध्ययन करने से हमें एक ओर अपने यशस्वी पूर्वजों का पुण्य स्मरण होता है। वहीं दूसरी ओर उनके द्वारा प्राणप्रतिष्ठित शाश्वत जीवन मूल्यों और संस्कारों का अंतःकरण को सुखद आभास होता है। जिसके बल पर उन्होंने पवित्र मातृभूमि को विश्वगुरु के स्वर्ण सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने का साभार कार्य किया । परंतु कालचक्र की क्रूर मति-गति ने उसके धवल, विराट स्वरूप को परिवर्तित ही नहीं अपितु क्षत-विक्षत करने का भी घ्रणित कार्य किया। जिसे उसकी वीर सपूती सन्तानों ने अपनी मेधा, बल, पौरुष के दम पर सम्पूर्ण सृष्टि का सिरमौर बनाया। उनका आदर्श क्या था? वह था राष्ट्रधर्म ! राष्ट्रधर्म वह धर्म है जिसको धारण कर समाज के सभी घटकों के महापुरुषों ने राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए पग-पग पर अपने जीवन का सर्वस्व न्योछावर करने के कीर्तिमान स्थापित किये।
प्राचीन काल से ही चाहे भगवान श्रीराम का रामराज्य काल रहा हो या अन्य श्रेष्ठ चक्रवर्ती सम्राटों, महाराजाओं, राजाओं का काल रहा हो, सभी ने अपने राष्ट्र की अस्मिता के लिए अपने सुख-वैभव का त्याग कर राष्ट्रधर्म को अन्तिम पराकाष्ठा तक निभाया।
अपने राष्ट्र की पुत्रवत प्रजाजन की रक्षा करना ही एक राजा का क्षात्रधर्म अर्थात राष्ट्रधर्म होता है। परन्तु समय-समय पर उनमें आये दोषों के कारण प्रजाजन को अलघ्य कठिनाइयों एवं घोर संकटों का भी सामना करना पड़ा। इसलिए क्षात्रगुणों से युक्त राजा के अस्तित्व की समाज को सदा आवश्यकता रही है। इसी कारण रावण, कंस जैसे क्रूर, आततायी, पापी राजाओं से मुक्ति के लिए भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण जैसे श्रेष्ठ धर्मात्मा राजाओं के प्रादुर्भाव के लिए सम्पूर्ण समाज के श्रेष्ठजनों को प्रयत्नरूपी यज्ञानुष्ठान करने पड़े। जिससे प्रजाजन को निर्विघ्न जीवन जीने का सौभाग्य प्राप्त हो सके और धर्म की पुनः स्थापना का यज्ञ पूर्णाहुति को प्राप्त हो सके।
इन्हीं सब ऐतिहासिक तथ्यों को शोध, परख, अनुभव कर भगवान श्रीराम से लेकर लौहपुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल तक की सुदीर्घ परम्परारुपी श्रृंखला को श्री जगराम सिंह द्वारा सृजित “राष्ट्र के गौरव” रूपी हार में पिरोने का परिश्रमपूर्वक प्रयास किया गया है। जो भावी सन्तानों के लिए प्रेरक, मार्गदर्शक, पथ के मूक पाषाण दर्शक के रूप में अवश्य ही उपयोगी एवं सहायक सिद्ध होगा। अंततः लेखक के उज्ज्वल भविष्य के साथ ही मातृभूमि की अखण्डभक्ति की प्रभु से प्रार्थना करता हूँ।
धन्यवाद
कमलेश सिंह राष्ट्रीय सह-संयोजक हिन्दू जागरण मंच

अनुक्रमणिका

मनोगत
प्रस्तावना
 (1) भगवान श्रीराम
(2) भगवान श्रीकृष्ण
 (3) सम्राट युधिष्ठिर
(4) महाराजा परीक्षित
(5) महाराजा जनमेजय
(6) सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य
(7) सम्राट अशोक
(8) महाराजा खारवेल
(9) सम्राट् पुष्यमित्र शुंग
(10) सम्राट विक्रमादित्य
(11) महाराजा गौतमी पुत्र शातकर्णी (सातवाहन)
(12) सम्राट् समुद्रगुप्त
(13) सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय
(14) सम्राट् स्कंदगुप्त
(15) महाराजा पुलकेशिन प्रथम
(16) सम्राट यशोधर्मन
(17) सम्राट् हर्ष
(18) महाराजा नरसिंहवर्मन प्रथम
(19) सम्राट् ललितादित्य
(20) महाराणा बप्पा रावल
(21) महाराजा कृष्ण प्रथम
(22)  महाराजा देवपाल
(23) सम्राट् मिहिरभोज प्रतिहार (गुर्जरेश्वर)
(24) सम्राट् राजेंद्र चोल प्रथम
(25) महाराजा वीर सुहेलदेव राजभर
(26) महाराजा भोज परमार
(27) महाराजा पृथ्वीराज चौहान
(28) वीर लाचित बोड़फुकन
(29) सम्राट् कृष्ण देवराय
(30) महाराजा हेमचंद्र विक्रमादित्य (हेमू)
(31) महाराणा प्रताप
(32) छत्रपति शिवाजी
(33) महाराजा छत्रसाल
(34) पेशवा बाजीराव प्रथम
(35) महाराजा रणजीत सिंह
(36) कालजयि सुभाषचंद्र बोस (नेताजी)
(37) सरदार वल्लभभाई पटेल
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