
समाज की गतिशीलता में राजनैतिक प्रक्रिया अनेक प्रक्रियाओं में से एक है। समाज को विकासशील बनानेवाली अन्य महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है, सांस्कृतिक प्रक्रिया। जीवन जैसा है उसे अधिक सुन्दर उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरम्भ से ही मनुष्य में रही है। यही इच्छा जब सामाजिक स्तर पर रूप लेती है, तब वह संस्कृति कहलाती है, जिसके अन्तर्गत धर्म, नीति, कला, साहित्य, संगीत आदि आते हैं। संस्कृति समाज की मूल जीवनदायिनी शक्ति है, राजनैतिक शक्ति से भी अधिक। भारतीय समाज इसका प्रमाण है। राजनैतिक दासता सदियों रही; पर संस्कृति की शक्ति के कारण यह जाति जीवित रही और विकास करती गयी।
भारत : इतिहास और संस्कृति मुक्तिबोध की बहुचर्चित कृति है। 1962 में प्रकाशित होते ही यह विवादों में घिर गई थी। तत्कालीन मध्य प्रदेश शासन ने ‘भद्रता और नैतिकता के विरुद्ध’ ठहराते हुए इस पुस्तक को प्रतिबन्धित कर दिया था। पुस्तक पर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में मुकदमा चला जिसने 1963 में निर्णय दिया कि पुस्तक के 10 आपित्तजनक अंशों को हटाकर ही इसका पुनर्प्रकाशन किया जा सकता है।
अदालती फैसले का पूरा सम्मान करते हुए आपत्तिजनक अंशों को हटाकर यह पुस्तक अब अपने समग्र रूप में प्रस्तुत है। मुक्तिबोध की इच्छा थी कि कम-से-कम सामान्य रूप में यह पुस्तक जनता के समक्ष रहे। प्रस्तुत संस्करण में यह प्रयत्न किया गया है। कि जिस स्वरूप में यह लिखी गई थी हू-ब-हू उसी स्वरूप में पाठकों के सामने आए। समग्र पुस्तक का जो अनुक्रम मुक्तिबोध ने बनाया था अध्यायों के क्रम भी उसी के अनुसार रखे गए हैं।
मुक्तिबोध के अनुसार, यह इस अर्थ में इतिहास की पुस्तक नहीं है जैसाकि अमूमन इतिहास में राजाओं, युद्धों और राजनीतिक उलट-फेरों का विवरण रहता है । युद्धों और राजवंशों के ब्योरों में न अटककर उन्होंने अपने समाज और संस्कृति के विकास-पथ को अंकित करने पर जोर दिया है। वस्तुत: यह कृति मुक्तिबोध के उस सोच का परिणाम है जो अपने समूचे इतिहास और जातीय परम्परा के यथर्थवादी मूल्यांकन से पैदा हुआ था।
पुस्तक को लेकर उठे विवाद से जुड़े सभी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज परिशिष्ट में रखे गए हैं; जिनमें पुस्तक के विरुद्ध पारित प्रस्ताव, मध्यप्रदेश शासन का प्रतिबन्ध आदेश, मुक्तिबोध का स्पष्टीकरण, हाई कोर्ट का निर्णय आदि शामिल हैं। इनसे पुस्तक का पूरा परिप्रेक्ष्य स्पष्ट होता है। साथ ही स्वातंत्र्योत्तर भारत में इतिहास की समझ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े सवालों पर भी रोशनी पड़ती है, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने इस पुस्तक के पहली बार प्रकाशित होने के समय थे।
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को श्योपुर, ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। आजीविका के लिए 20 वर्ष की उम्र से बड़नगर मिडिल स्कूल में मास्टरी आरम्भ करके दौलतगंज (उज्जैन), शुजालपुर, इन्दौर, कलकत्ता, बम्बई, बंगलौर, बनारस, जबलपुर, नागपुर में थोड़े-थोड़े अरसे रहे। अन्ततः 1958 में दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगाँव में।

वे लेखन में ही नहीं, जीवन में भी प्रगतिशील सोच के पक्षधर रहे, और यही कारण रहा कि माता-पिता की असहमति के बावजूद प्रेम विवाह किया।
अध्ययन-अध्यापन के साथ पत्रकारिता में भी उनकी गहरी रुचि रही। ‘वसुधा’, ‘नया ख़ून’ जैसी पत्रिकाओं में सम्पादन-सहयोग। अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तार सप्तक’ के पहले कवि के रूप में भी जाने जाते हैं। प्रगतिशील कविता और नई कविता के बीच आपकी क़लम की भूमिका अहम और अविस्मरणीय रही जिसका महत्त्व अपने ‘विज़न’ में आज भी एक बड़ी लीक ।
उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं—चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी- भूरी ख़ाक-धूल, प्रतिनिधि कविताएँ (कविता); काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी); कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्म- संघर्ष, नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी (आलोचना); भारत : इतिहास और संस्कृति (विमर्श); मेरे युवजन मेरे परिजन (पत्र-साहित्य); शेष-अशेष (असंकलित रचनाएँ)। उनकी प्रकाशित-अप्रकाशित सभी रचनाएँ आठ खंडों में प्रकाशित मुक्तिबोध समग्र में शामिल हैं। उनका निधन 11 सितम्बर, 1964 को नई दिल्ली में हुआ ।
जल रही है लाइब्रेरी पार्सिपालिस
की
मैंने सिर्फ़ नालिश की
मैंने सिर्फ़ नालिश की
अँधेरी जिस अदालत में…
दो शब्द
गजानन माधव मुक्तिबोध, मेरे पिताजी, ने साहित्यिक रचनाओं के अलावा अन्य कुछ कृतियों की रचना की है। समय-समय पर आये हुए संकटों की उलझनों से छुटकारा पाने के लिए, उनसे उबरने के लिए, यही एक तात्कालिक उपाय उन्हें सूझा होगा। इस प्रकार की कृतियों में माध्यमिक कक्षाओं की सामाजिक अध्ययन की पुस्तकें (विदर्भ, महाराष्ट्र), विश्वविद्यालयीन कक्षाओं की पुस्तकों के सरल-अध्ययन (सागर विश्वविद्यालय) तथा प्रदेश की मैट्रिक की कक्षाओं के लिए द्रुत पठन की यह पुस्तक विशेष उल्लेखनीय है। इस प्रकार की यह अन्तिम तथा महत्त्वपूर्ण कृति है। यह पुस्तक सन् 1962 में लिखी गयी और उसी वर्ष ‘नैतिकता तथा भद्रता’ के विरुद्ध होने का आरोप उस पर लग गया। यह प्रदेश शासन ने अपने गजट में प्रकाशित भी किया।
वस्तुतः यह पुस्तक विस्तृत रूप से लिखी गयी थी और यह विस्तार पाठ्यक्रम की सीमा रेखा को भी पार कर गया। अतः बाद में पुस्तक को पाठ्यक्रम के दायरे में लाकर उसे संक्षिप्त रूप से प्रकाशित किया गया। शेष पुस्तक अंश को अलग कर दिया गया। इस कार्य में पिताजी के अन्तरंग मित्र मेरे आदरणीय और मार्गदर्शक श्री हरिशंकरजी परसाई का उल्लेखनीय योगदान रहा है बल्कि यूँ कहा जाये कि उनकी ही पहल से यह पुस्तक सम्भव हो पायी है, तब भी और इस बार भी ।
पुस्तक को पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकृति मिली। प्रदेश के दैनिक व साप्ताहिक पत्रों ने पुस्तक की मूल वैज्ञानिक अनुसन्धानवादी जमीन को न केवल सराहा, वरन् उस नवीन दृष्टिकोण को पुख्ता बनाने में अपना सहयोग भी प्रदान किया।
इसी बीच यह पुस्तक पाठ्य-पुस्तक प्रकाशकों के संयुक्त स्वार्थों के षड्यन्त्र के योजनाबद्ध आक्रोश का प्रदेश के कई नगरों में शिकार बनी। और अन्ततः एक असाधारण राजपत्र (क्रमांक 154, भोपाल, बुधवार, दिनांक 19 सितम्बर, 1962) के द्वारा भारत इतिहास और संस्कृति जन सुरक्षा अधिनियम के अन्तर्गत ‘भद्रता तथा नैतिकता के विरुद्ध घोषित
कर दी गयी।
पुस्तक-प्रकाशक ने जबलपुर हाईकोर्ट में अपना दावा प्रस्तुत किया। मुक्तिबोधजी ने अथक परिश्रम से पुस्तक के पक्ष में, आपत्तियों के विपक्ष में अन्य लब्धप्रतिष्ठ इतिहासविदों की पुस्तकों से उद्धरण-पर-उद्धरण खोजकर उन्हें क़लमबन्द किया। वैचारिक धरातल पर इतना मानसिक त्रास उन्हें कभी भोगते नहीं देखा। वे कहा करते-मेरी किसी मौलिक रचना को आपत्तिजनक मानकर सरकार पाबन्दी लगाती तो कोई बात भी बनती। किन्तु वस्तुतः जो सर्वधा मेरी मौलिक रचना नहीं है वह किस प्रकार आपत्तिजनक घोषित हुई, यह कोई मुझे समझा दें।
शासन की ओर से कुल दस आपत्तियाँ पुस्तक के विरुद्ध पेश की गयीं। इनमें वे भी शामिल थीं जो आन्दोलनकर्ताओं ने चुन-चुनकर गिनाई थीं। इनमें से चार को आपत्तिजनक माना गया। ये चार आपत्तिजनक प्रसंग क्रमानुसार 1, 2, 5 और 6 हैं। विद्वान् न्यायाधीश ने अन्त में फैसले की व्यवस्था देते हुए आदेश दिया कि आपत्तिजनक प्रसंगों को पुस्तक से खारिज कर पुस्तक को पुनः प्रकाशित किया जा सकता है। यह घटना अप्रैल सन् 1963 की है।
अतः हाईकोर्ट के फैसले के आदेश का पूर्ण सम्मान करते हुए आपत्तिजनक प्रसंगों को पुस्तक से पृथक करके भारत : इतिहास और संस्कृति अपने समग्र रूप में प्रस्तुत की जा रही है। मुक्तिबोधजी की इच्छा थी कि कम-से-कम सामान्य रूप में भारत : इतिहास और संस्कृति जनता के समक्ष रहे। मेरा प्रयत्न रहा है कि जिस स्वरूप में पुस्तक लिखी गयी, हू-ब-हू उसी स्वरूप में वह पाठकों के सामने आये । समग्र पुस्तक का जो अनुक्रम मुक्तिबोधजी ने बनाया था उसी के अनुसार अध्यायों का क्रम रखा गया है। बावजूद इसके तीन अध्याय ऐसे रह गये जिनको समग्र अनुक्रम में सम्भवतः भूलवश स्थान नहीं दिया गया था। इनमें से दो अध्याय प्रकाशित पुस्तक में संकलित थे अतः उसी क्रमानुसार रखे हैं। तीसरे अध्याय को उसकी विषयवस्तु का ध्यान रखते हुए क्रमबद्ध किया है। इन अध्यायों के अन्त में इस बाबत टिप्पणी भी दी गयी है।
प्रकाशित पुस्तक के प्रत्येक अध्याय के अन्त में प्रश्नावली दी गयी थी और यही स्थिति शेष पुस्तक अंश में भी थी। चूँकि प्रकाशित पुस्तक अध्यायों के अन्त में पाठ्यक्रम के उद्देश्य से बनी थी इस कारण प्रश्नावली का ओचित्य था, उसका प्रयोजन था किन्तु अब सामान्य रूप पुस्तक प्रकाशित हो रही है अतः प्रश्नावली को अध्यायों के अन्त में से न रखकर एक साथ समस्त अध्यायों की प्रश्नावली क्रमवार परिशिष्ट में रखी गयी है। यह इसलिए किया गया कि मुक्तिबोधजी के लेखे किस अध्याय में किन मुद्दों को उन्होंने महत्त्वपूर्ण माना, यह सुधी पाठक जान पायें ।
इस पुस्तक को तैयार करने में मुझे मुक्तिबोधजी के मित्रों का सहयोग और मार्गदर्शन मिला है। इनमें श्री नेमिचन्द्र जैन तथा श्री अशोक वाजपेयी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जबलपुर के श्री ज्ञानरंजन ने हाईकोर्ट के फैसले की सत्य प्रतिलिपि उपलब्ध कराई, उनके सहयोग के लिए उनका हृदय से आभारी हूँ । राजकमल की प्रबन्ध निदेशिका श्रीमती शीला सन्धू ने मुक्तिबोधजी के समस्त साहित्य के प्रकाशन का जो उत्तरदायित्व स्वीकारा है, उसमें इस पुस्तक का प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। -रमेश गजानन मुक्तिबोध
11 सितम्बर, 1985
नया परिवर्धित संस्करण
नये परिवर्धित संस्करण में पुस्तक के साथ घटित घटनाक्रम के दस्तावेज क्रमानुसार दिये गये हैं। पुस्तक पर उठे आक्षेप/आरोप और उनके प्रत्युत्तर विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। एक-एक आरोप पर मान्य इतिहासकारों के कई-कई अवतरण (स्थापनाएँ) मुक्तिबोध जी ने तैयार किये। इसमें पुनरावृत्ति है, कई प्रत्युत्तर दोहराये भी गये हैं। ये संकेत करते हैं उनके मानसिक विक्षोभ और श्रम की पराकाष्ठा का ।
पत्र-2 की पांडुलिपि के अन्त में-आपका ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ और तीसरी पंक्ति में ‘पुस्तक का लेखक’ लिखकर फिर उसे काट दिया गया है
पुस्तक में सर्वत्र छोटे ब्रेकेट () का उपयोग लेखक द्वारा तथा बड़े ब्रेकेट [] का मुक्तिबोध रचनावली के सम्पादक द्वारा किया है। नये परिवर्धित संस्करण में राजकमल प्रकाशन के निदेशक श्री अशोक महेश्वरी जी ने विशेष उत्साह दिखाया है। उन्हें खास धन्यवाद ।
28 मई, 2009 डी-225, सेक्टर-4
देवेन्द्र नगर, रायपुर
-रमेश गजानन मुक्तिबोध
भूमिका
यह ग्रन्थ मौलिक नहीं है। जहाँ से जो मिला लिया। दृष्टिकोण यही रखा कि वस्तुस्थिति की समग्रता, जो हमारे जीवन को बनाती है, उसे न छोड़ा जाये। उस समग्र ही के दृष्टिकोण से इतिहास-रचना की जाय। यह ग्रन्थ केवल विद्यार्थियों के लिए नहीं है, सामान्य जन के लिए भी है। इतना काफी है।
-गजानन माधव मुक्तिबोध
यह पुस्तक
यह इतिहास की पुस्तक नहीं है-इस अर्थ में कि सामान्यतः इतिहास में राजाओं कों और राजनैतिक उत्तर फेरों का जैसा विवरण रहता है, वैसा इसमें नहीं है। इस पुस्तिका का वह प्रयोजन भी नहीं है, क्योंकि वह राजनैतिक इतिहास का विषय है। समाज की गतिशीलता में राजनैतिक प्रक्रिया अनेक प्रक्रियाओं में से एक है। समाज को विकासशील बनानेवाली अन्य महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, सांस्कृतिक प्रक्रिया जीवन जैसा है उसे अधिक सुन्दर उदात्त और मंगलमय बनाने की इच्छा आरम्भ से ही मनुष्य में रही है। यही इच्छा जब सामाजिक स्तर पर रूप लेती है, तब वह संस्कृति कहलाती है, जिसके अन्तर्गत धर्म, नीति, कला, साहित्य, संगीत आदि आते हैं। संस्कृति समाज की मूल जीवनदायिनी शक्ति है, राजनैतिक शक्ति से भी अधिक भारतीय समाज इसका प्रमाण है। राजनैतिक दासता सदियों रही; पर संस्कृति की शक्ति के कारण यह जाति जीवित रही और विकास करती गयी।
इसके साथ ही लगी आती है, सामाजिक विकास की शक्ति । राजनैतिक उलट-फेर होते रहते हैं, पर समाज में विकास की परम्परा चलती रहती है। ऊपर-ऊपर मुसलमान और हिन्दू राजाओं में युद्ध चलते रहते थे, पर समाज में हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के साथ भ्रातृ-भाव से रहने के प्रयत्न कर रहे थे। वे एक-दूसरे से विचारों, आदर्शों, प्रथाओं और धार्मिक मान्यताओं का आदान-प्रदान भी कर रहे थे। वे एक-दूसरे के जीवन को प्रभावित कर रहे थे। तभी मध्य युग में उधर हिन्दू और मुसलमान राजाओं की टक्कर होती थी, लेकिन मुसलमान आदि ब्रजभाषा में कृष्ण-काव्य लिख रहे थे और हिन्दू-मुसलमान पीरों और फकीरों की पूजा कर रहे थे। समाज अपने में किसी बाधा को स्वीकार नहीं करता, चाहे वह राजनैतिक हो या धार्मिक।
पाठ्यपुस्तक के रूप में प्रकाशित संस्करण की भूमिका ।
इस भारतीय समाज की विकास-यात्रा बहुत दिलचस्प है। इसमें कितने उलट-फेर हुए हैं। कितनी जातियाँ यहाँ आयीं और विलीन हो गयीं, किस प्रकार उन्होंने एक-दूसरे को प्रभावित किया और फिर एक होकर आगे बढ़ीं-यह बड़ी रोचक और स्फूर्तिदायिनी कथा है। रवीन्द्रनाथ ने कहा है कि ‘भारत महा-मानव सागर’ है, जिसमें कितनी ही सदियों की पावन धाराओं का जल है। जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं, उसमें सदियों से समन्वय की प्रक्रिया चल रही है; विभिन्न जातियों की संस्कृति के तत्त्व उसमें मिलते गये हैं और वह बहुत विशाल हो गयी है। यह हमारी बड़ी शक्ति है। इक़बाल ने कहा था-‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’ वह ‘कुछ बात’ यही सांस्कृतिक समन्वय की शक्ति है।
मेरी दृष्टि में हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की जानकारी किशोरों के लिए बहुत आवश्यक है। इससे वे इस देश की परम्परा को सही ढंग से समझ सकेंगे। उनकी भावनाओं का विस्तार होगा और वे उदारता का दृष्टिकोण अपना सकेंगे। अपने इस अति प्राचीन समाज के मर्म को समझना बहुत जरूरी है।
मैंने इस पुस्तक में यही प्रयत्न किया है। युद्धों और राजवंशों के विवरण में न अटककर मैंने अपने समाज और उसकी संस्कृति के विकास पथ को अंकित किया है। स्वाभाविक है, इसमें राजनैतिक हलचलें भी आ गयी हैं। पर उन्हें प्रधानता नहीं दी गयी। मैंने उन धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक तथा राजनैतिक आन्दोलनों को और उन व्यक्तियों को ही प्रधानता दी है जिन्होंने समाज को आगे बढ़ाया और उसका रूप बदला ।
वैदिक काल और बौद्ध युग तथा मुग़ल सल्तनत के बाद के हमारे आधुनिक युग पर मैंने विस्तार से लिखा है, क्योंकि बहुत दूर और बहुत पास की वस्तुएँ प्रायः धुँधली दिखती हैं। मेरा उद्देश्य है कि पाठक अति प्राचीन और अति नवीन परम्पराओं को ग्रहण कर सकें।
मैंने विभिन्न विद्वानों के ग्रन्थों की सहायता ली है। जहाँ जो उपयोगी मिल सका, मैंने ले लिया है। इन सब विद्वानों के प्रति मैं आभारी हूँ। आशा है यह छोटी-सी पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी।
– लेखक
अनुक्रम
1. दो शब्द
2.नया परिवर्तित संस्करण
3. भूमिका
4. यह पुस्तक
5. कुहरे में ढंका हुआ मानवेतिहास’
6. सभ्यता का उषःकाल
7. आर्य सभ्यता का आरम्भ
8. उत्तर-वैदिक काल
9. जैन तथा बौद्ध धर्म
10. प्रथम साम्राज्य की स्थापना
11. अशोक की धर्म-विजय
12. भारत के स्वर्णयुग की रश्मियाँ
13. प्राचीन भारत के विश्वविद्यालय
14. भारत का स्वर्णयुग’
15. शुंग-सातवाहन काल
16. मौर्यकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ
17. हर्षवर्धन
18. विन्ध्याचल के उस पार
19. बृहत्तर भारत
20. मध्य युग का आरम्भ
21. भारत में इस्लाम का आगमन तथा दिल्ली सल्तनत*
22. मध्ययुगीन सांस्कृतिक अभ्युत्थान तथा मानव-सामंजस्य की प्रक्रियाएँ
23. भारत में मुग़लों का आधिपत्य
24. अकबर महान्
25. अकबर के बाद
26. सात समुन्दर पार के जहाज
27. झिलमिलाते दीप
28. कम्पनी राज और सन् सत्तावन का स्वतन्त्रता-युद्ध
29. भारत की पराजय क्यों हुई”
30. भारत में आधुनिक युग का उषःकाल
31. राष्ट्रीय चेतना का विकास प्रथम चरण
32. राष्ट्रीय चेतना का विकास : द्वितीय चरण
33. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
34. भारत की स्वाधीनता का सूर्य
35. महानों का मन्वन्तर
36. परिशिष्ट-1 ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ की प्रश्नावली
37. परिशिष्ट-2 पुस्तक के विरुद्ध पारित प्रस्ताव
38. आन्दोलन की एक संक्षिप्त रूप-रेखा
39. ‘मध्यप्रदेश शासन का राजपत्र
40. माननीय राज्यपाल को लिखा पत्र •
41. संक्षिप्त स्पष्टीकरण •
42. स्पष्टीकरण
43. हाईकोर्ट का फैसला
पत्र-1
पत्र-2