प्लेटो का राजदर्शन – Political Philosophy of Plato

प्लेटो को न केवल यूनान का अपितु समूचे पश्चिमी जगत् का प्रथम राजनीतिक दार्शनिक माना जाता है। उससे पूर्व पश्चिम में किसी ने भी तर्कसंगत रूप से राजनीतिक दर्शन का प्रतिपादन नहीं किया था। उसका राजनीतिक चिन्तन मानव कल्याण का अजर-अमर सन्देश लिये हुए है। उसका यह कथन एक शाश्वत सत्य है कि ‘राज्य व्यक्ति का ही विराट् रूप है’ और जिस प्रकार एक आदर्श व्यक्ति में सत्, रज तथा तम गुणों का मेल होना चाहिए, उसी प्रकार का आदर्श राज्य में इन तीनों गुणों का सामंजस्य और सतोगुण की अन्य गुणों पर प्रधानता होनी चाहिए।
मैक्सी के शब्दों में, “सुकरात ने प्लेटो के रूप में फिर से शरीर धारण किया। प्लेटो महान् अन्वेषक (सुकरात) के साहित्यिक और दार्शनिक कार्य को पूरा करने वाला था।”

लेखक परिचय

डॉ. योगेन्द्र कुमार शर्मा, एम.ए., पी.एच.डी., सेवानिवृत्त, रीडर एवं अध्यक्ष, स्नातकोत्तर एवं शोध विभाग, पी.पी. एन. कालेज, कानपुर। आपने चालीस वर्ष के अध्यापन कार्य में इक्कीस वर्ष शोध निदेशन किया है। आपने विभिन्न राष्ट्रीय परिचर्चाओं का संचालन करने के साथ-साथ उनमें दिशा-बोध (Key-Note Address) व्याख्यान और शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं तथा उनके निर्देशन में मानक शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर एक दर्जन से अधिक छात्रों ने शोध उपाधि प्राप्त की हैं। सामाजिक विज्ञान के सभी विषय अन्योन्याश्रित रूप से एक-दूसरे से सह सम्बन्धित हैं, अतः उन्होंने इन सभी विषयों का गहन अध्ययन, मनन एवं चिन्तन कर अन्तः विषयक शोध को विशेष महत्त्व दिया है और बीस से अधिक मानक पुस्तकों की रचना की है। सामाजिक विज्ञान के विषयों में मानक साहित्य सृजन का उनका कार्य यथावत प्रगति पर है और भविष्य में उनकी अनेक मानक पुस्तकें उपलब्ध होंगी।

प्रस्तावना

राजनीति की दृष्टि से ईसा पूर्व चौथी और पाँचवीं शताब्दी का यूनान ‘राजनीतिक प्रयोगशाला’ समझा जाता था। यह न केवल प्राचीन यूनान के लिए क्लासिकी युग था बल्कि मानव इतिहास के लिए भी गौरवशाली युग था। इस युग ने जहाँ सिकन्दर जैसे महान् शासकों और पैरीक्लीज जैसे प्रजातान्त्रिक नेताओं को जन्म दिया, वहाँ सुकरात, प्लेटो और अरस्तू जैसे महान् दार्शनिकों को भी जन्म दिया।
प्लेटो को न केवल यूनान का अपितु समूचे पश्चिमी जगत् का प्रथम राजनीतिक दार्शनिक माना जाता है। उससे पूर्व पश्चिम में किसी ने भी तर्कसंगत रूप से राजनीतिक दर्शन का प्रतिपादन नहीं किया था। उसका राजनीतिक चिन्तन मानव कल्याण का अजर-अमर सन्देश लिये हुए है। उसका यह कथन एक शाश्वत सत्य है कि ‘राज्य व्यक्ति का ही विराट् रूप है’ और जिस प्रकार एक आदर्श व्यक्ति में सत्, रज तथा तम गुणों का मेल होना चाहिए, उसी प्रकार का आदर्श राज्य में इन तीनों गुणों का सामंजस्य और सतोगुण की अन्य गुणों पर प्रधानता होनी चाहिए।
मैक्सी के शब्दों में, “सुकरात ने प्लेटो के रूप में फिर से शरीर धारण किया। प्लेटो महान् अन्वेषक (सुकरात) के साहित्यिक और दार्शनिक कार्य को पूरा करने वाला था।”
अपने जीवन में प्लेटो ने यूनान के इतिहास का एक अत्यन्त नाजुक दौर देखा था। उसने अपनी आँखों से एथेन्स को स्पार्टा के सामने घुटने टेकते हुए देखा था । उसने अपने प्रिय गुरु और अपनी दृष्टि में श्रेष्ठतम मानव सुकरात को विष का प्याला पीते हुए देखा था। उसने एथेन्स में ‘तीस आततायियों’ का शासन और नैतिक आदर्शों का पराभव देखा था। प्लेटो ने सार्वजनिक क्षेत्र की इन बुराइयों को दूर करने का निश्चय किया था । उसे ‘दार्शनिक राजा’ की धारणा में समस्या का समाधान मिला था। प्लेटो का मानना था कि शासन का कार्य एक विशेष कला होने के कारण सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्तियों के द्वारा ही शासन कार्य किया जाना चाहिए। प्लेटो के साहित्य से यही आभास होता है कि वह प्रथम और सम्भवतः अन्तिम व्यक्ति था, जिसने इस बात का प्रतिपादन किया कि राज्य पर सर्वाधिक धनवान, सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी या सर्वाधिक चालाक व्यक्तियों द्वारा नहीं, वरन् सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्तियों  द्वारा शासन किया जाना चाहिए।
प्लेटो के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि राजनीतिक शक्ति और सत्य के प्रेम को एक ही व्यक्ति में कैसे संयुक्त किया जाए। उसने इस चुनौती का मुकाबला किया। उसकी सिराक्यूज की यात्राओं से यह प्रमाणित होता है कि प्लेटो केवल कोरा उपदेश देने वाला व्यक्ति नहीं था। प्लेटो के निधन के बाद के वर्षों में उसकी ख्याति चारों ओर फैल गई थी। उसका बड़ा सम्मान था। उसकी अकादमी ने एथेन्स के विद्यापीठों में अग्रगण्य स्थान प्राप्त कर लिया था। इस प्रकार वह स्वयं सुकरात का
उत्तराधिकारी था ।
प्लेटो की शिक्षा-पद्धति का दार्शनिक आधार था। उसके मतानुकूल दूसरी वस्तुओं की अपेक्षा मनुष्य का मन कुछ विशिष्ट वस्तुओं की ओर अधिक आकृष्ट होता है। वह सदा क्रियाशील रहता है, निष्क्रिय नहीं। वस्तुएँ उसकी ओर नहीं आती। वह स्वतः वस्तुओं की ओर चला जाता है। उसके आकर्षण से मन का झुकाव जाना जाता है। शिक्षक को इसके साथ किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करना चाहिए। उसका काम केवल इतना ही है कि वह मन के सम्मुख ऐसा प्रकाश उपस्थित करे कि नेत्र उसकी ओर आकृष्ट हों। आत्मा के सुसंस्कार में वातावरण का उतना ही हाथ होता है जितना कि आत्मा का। यह अपने को वातावरण और उन वस्तुओं के अनुरूप बनाने में है जिन्हें वह देखती है। यही कारण है कि प्लेटो ने अपनी शिक्षा-पद्धति में कला को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
प्लेटो के तीनों ग्रन्थों अर्थात् ‘रिपब्लिक’, ‘स्टेट्समैन’ और ‘लॉज’ के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक विचारों के इतिहास में उसका स्थान बहुत ऊँचा है। उसके समस्त विचार मौलिक नहीं हैं। उसके विचारों में पूर्वकालीन आयोनियन और तार्किक दार्शनिकों तथा सुकरात के विचारों की छाप निश्चित रूप से विद्यमान है। समकालीन राजनीतिक संस्थाओं के प्रभाव से भी वह अछूता नहीं रहा। फिर भी उसके ग्रन्थों में विभिन्न विषयों का जो प्रतिपादन किया है वह अपने ही ढंग का है और उसी से उसकी प्रतिभा एवं मौलिकता के प्रमाण मिल जाते हैं।
विभिन्न आलोचनाओं के बावजूद तत्कालीन यूनानी नगर राज्यों की परिस्थितियों के सन्दर्भ में प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का महत्त्व स्पष्ट है। प्लेटोकालीन यूनानी समाज में बड़ी अव्यवस्था फैली हुई थी। प्रत्येक राज्य धनी तथा निर्धन, दो परस्पर विरोधी वर्गों में विभाजित था। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का सिद्धान्त क्रियात्मक रूप में प्रचलित था, थ्रेसीमेकस जैसे सोफिस्ट विचारक बुद्धि एवं तर्क की दृष्टि से भी इसे न्याय संगत ठहरा रहे थे। इनके विरोध में नैतिकता और सदाचरण को प्रतिष्ठित करने तथा तत्कालीन राज्य और सामाजिक व्यवस्था की कुरीतियों को दूर करने के लिए प्लेटो ने श्रेष्ठ तर्कों के आधार पर न्याय के विचार को प्रतिपादित किया।
व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा परिवार को प्लेटो संरक्षक वर्ग के लिए ऐसी दुर्गम चट्टान मानता था जिनसे टकराकर उनके नैतिक जीवन के क्षत-विक्षत होने की पूर्ण आशंका थी । अतः अपने आदर्श राज्य में अपनी समस्त प्रतिभा के साथ उसने इन दो बाधाओं पर प्रहार किया। साम्यवाद की योजना प्रस्तुत करके प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य रूपी प्रासाद की नींव सुदृढ़ करने का प्रयास किया। प्लेटो का साम्यवाद शिक्षा द्वारा उत्पन्न की हुई विचारधारा को प्रभावशाली बनाने वाला तथा उसे नवजीवन एवं नवशक्ति प्रदान करने वाला अनुपूरक यन्त्र है। न्याय पर आधारित आदर्श राज्य की स्थापना के लिए शिक्षा सकारात्मक और आध्यात्मिक तथा साम्यवाद निषेधात्मक और भौतिक साधन है। प्लेटो का साम्यवाद राजनीतिक सत्ता तथा आर्थिक लोलुपता के सम्मिश्रण की बुराई को दूर करने के लिए एक साहसिक उपचार है।
प्लेटो के सम्पूर्ण राजनीतिक दर्शन में दार्शनिक राजा की धारणा सबसे अधिक मौलिक है। तत्कालीन यूनानी नगर-राज्यों में अयोग्य और स्वार्थी राजनीतिज्ञ शासन करते थे । प्लेटो समकालीन तथा पूर्वकालीन यूनानी नगर-राज्यों में व्यक्तिवाद, अक्षमता, अस्थिरता एवं राजनीतिक स्वार्थपरता आदि से भली-भाँति परिचित था । एथेन्स आदि राज्यों के अज्ञानी शासकों के दुष्परिणामों को देखकर उसे यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि संसार में तब तक शान्ति स्थापित नहीं हो सकती, जब तक शासन संचालन योग्य, ज्ञानी तथा दार्शनिकों के हाथों में न आ जाए। अपने सातवें पत्र में उसने उल्लेख किया है कि “समस्त वर्तमान राज्यों का संविधान बुरा है, उनकी संस्थाओं के दोष दूर करना तब तक सम्भव नहीं, जब तक क्रान्तिकारी साधनों तथा सौभाग्यपूर्ण परिस्थितियों का संयोग न हो। सच्चे दर्शन की प्रशंसा करते हुए मैं यह दृढ़तापूर्वक कहने के लिए बाधित हुआ कि केवल ऐसे दर्शन से ही सार्वजनिक और वैयक्तिक अधिकार (Right) को ठीक तरह से समझा जा सकता है। अतएव मानव जाति के कष्ट का तब तक अन्त न होगा, जब तक कि बुद्धिमत्ता के सच्चे प्रेमी राजनीतिक सत्ता की बागडोर अपने हाथ में न लेंगे या राजनीतिक सत्ता संभालने वाले किसी दैवी आदेश से ज्ञान के प्रेमी न बनेंगे। इसी भावना को लेकर प्लेटो ने सिसली तथा इटली की यात्रा की थी। प्लेटो ने अपने विश्वास को रिपब्लिक में दृढ़तापूर्वक रखते हुए घोषणा की थी कि, “हमारे नगर (राज्यों) में तब तक कष्टों का अन्त नहीं होगा, जब तक दार्शनिक राजा न होंगे या इस संसार के राजाओं और राजकुमारों में दर्शन की भावना और सत्ता न होगी ।
अपने चिन्तन में प्लेटो ने बहुत-सी पद्धतियों का प्रयोग किया है। उसके दर्शन में द्वन्द्वात्मक, विश्लेषणात्मक, सोद्देश्यात्मक, निगमनात्मक, सादृश्यात्मक तथा ऐतिहासिक आदि सभी पद्धतियों के प्रयोग का आभास मिलता है।
– लेखक

प्रस्तावना

प्लेटो : एक परिचय
प्लेटो की चिन्तन पद्धति
प्लेटो की रचनाएं
प्लेटो के राजनीतिक विचार
प्लेटो का साम्यवाद
प्लेटो की दार्शनिक राजा की धारणा
आदर्शवाद का जनक
अनुवर्त्तिका
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