Trending Box Set of Ramdhari Singh Dinkar books (Hunkar, Rashmirathi, Urvashi,Parshuram Ki Pratiksha)

 

रश्मिरथी

हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था ? जन्मा तो क्यों वीर हुआ? कवच और कुण्डल –
भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ। धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान, जाति-गोत्र के बल से ही
आदर पाते हैं जहाँ सुजान।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जन्म : 23 सितम्बर, 1908 को बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया नामक गाँव में हुआ था। शिक्षा मोकामा घाट के रेलवे हाईस्कूल तथा फिर पटना कॉलेज में हुई जहाँ से उन्होंने इतिहास विषय लेकर बी.ए. (ऑनर्स) की परीक्षा उत्तीर्ण की। एक विद्यालय के प्रधानाचार्य, सब-रजिस्ट्रार, जन-सम्पर्क के उप-निदेशक, भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति, भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार आदि विभिन्न पदों पर रहकर उन्होंने अपनी प्रशासनिक योग्यता का परिचय दिया। 1924 में पाक्षिक ‘छात्र सहोदर’ (जबलपुर) में प्रकाशित पहली कविता से साहित्यिक जीवन का आरम्भ ।
प्रमुख कृतियाँ : कविता-रेणुका, हुंकार, रसवन्ती, कुरुक्षेत्र, सामधेनी, बापू, धूप और धुआँ, रश्मिरथी, नील कुसुम, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व, हारे को हरिनाम आदि । गद्य-मिट्टी की ओर, अर्धनारीश्वर, संस्कृति के चार अध्याय, काव्य की भूमिका, पन्त, प्रसाद और मैथिलीशरण, शुद्ध कविता की खोज, संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ आदि ।
सम्मान : 1959 में संस्कृति के चार अध्याय पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार और पद्मभूषण की उपाधि। 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय की तरफ से डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की मानद उपाधि। 1973 में उर्वशी पर ज्ञानपीठ पुरस्कार। अनेक बार भारतीय और विदेशी सरकारों के निमंत्रण पर विदेश यात्रा ।
निधन : 24 अप्रैल, 1974

भूमिका

इस सरल-सीधे काव्य को भी किसी भूमिका की जरूरत है, ऐसा मैं नहीं मानता; मगर, कुछ न लिखूँ तो वे पाठक जरा उदास हो जाएँगे जो मूल पुस्तक के पढ़ने में हाथ लगाने से पूर्व किसी-न-किसी पूर्वाभास की खोज करते हैं। यों भी, हर चीज का कुछ-न-कुछ इतिहास होता है और ‘रश्मिरथी’ नामक यह विनम्र कृति भी इस नियम का अपवाद नहीं है।
बात यह है कि ‘कुरुक्षेत्र’ की रचना कर चुकने के बाद ही मुझमें यह भाव जगा कि मैं कोई ऐसा काव्य भी लिखूँ जिसमें केवल विचारोत्तेजकता ही नहीं, कुछ कथा- संवाद और वर्णन का भी माहात्म्य हो। स्पष्ट ही यह उस मोह का उद्गार था जो मेरे भीतर उस परम्परा के प्रति मौजूद रहा है जिसके सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण जी गुप्त हैं। इस परम्परा के प्रति मेरे बहुत-से सहधर्मियों के क्या भाव हैं, इससे मैं अपरिचित नहीं हूँ। मुझे यह भी पता है कि जिन देशों अथवा दिशाओं से आज हिन्दी-काव्य की प्रेरणा पार्सल से, मोल या उधार, मँगाई जा रही है, वहाँ
कथा-काव्य की परम्परा निःशेष हो चुकी है और जो काम पहले प्रबन्ध-काव्य करते थे, वही काम अब बड़े मज़े में, उपन्यास कर रहे हैं। किन्तु, अन्य बहुत-सी बातों की तरह, मैं एक इस बात का भी महत्त्व समझता हूँ कि भारतीय जनता के हृदय में प्रबन्ध-काव्य का प्रेम आज भी काफी प्रबल है। और वह अच्छे उपन्यासों के साथ-साथ ऐसी कविताओं के लिए भी बहुत ही उत्कंठित रहती है। अगर हम इस सात्त्विक काव्य-प्रेम की उपेक्षा कर दें तो, मेरी तुच्छ सम्मति में, हिन्दी कविता के लिए यह कोई बहुत अच्छी बात नहीं होगी। परम्परा केवल वही मुख्य नहीं है जिसकी रचना बाहर हो रही है, कुछ वह भी प्रधान है जो हमें अपने पुरखों से विरासत के रूप में मिली है, जो निखिल भूमंडल के साहित्य के बीच हमारे अपने साहित्य की विशेषता है और जिसके भीतर से हम अपने हृदय को अपनी जाति के हृदय के साथ आसानी से मिला सकते हैं।
मगर, कलाकारों की रुचि आज जो कथा-काव्य की ओर नहीं जा रही है, उसका भी कारण है, और वह यह, कि विशिष्टीकरण की प्रक्रिया में लीन होते-होते कविता केवल चित्र, चिन्तन और विरल संगीत के धरातल पर जा अटकी है और जहाँ भी स्थूलता एवं वर्णन के संकट में फँसने का भय है, उस ओर कवि-कल्पना जाना नहीं चाहती। लेकिन, स्थूलता और वर्णन के संकट का मुकाबला किये बिना कथा-काव्य लिखनेवाले का काम नहीं चल सकता। कथा कहने में, अक्सर, ऐसी परिस्थितियाँ आकर मौजूद हो जाती हैं जिनका वर्णन करना तो ज़रूरी होता है, मगर, वर्णन काव्यात्मकता में व्याघात डाले बिना निभ नहीं सकता। ‘रामचरितमानस’, ‘साकेत’ और ‘कामायनी’ के कमजोर
स्थल इस बात के प्रमाण हैं। विशेषतः कामायनीकार ने शायद इसी प्रकार के संकटों से बचने के लिए कथा-सूत्र को अत्यन्त विरल कर देने की चेष्टा की थी। किन्तु, यह चेष्टा सर्वत्र सफल नहीं हो सकी।
आजकल लोग बाज़ारों से ओट्स (जई) मँगाकर खाया करते हैं। आंशिक तुलना में यह गीत और मुक्तक का आनन्द है। मगर, कथा-काव्य का आनन्द खेतों में देशी पद्धति से जई उपजाने के आनन्द के समान है; यानी इस पद्धति से जई के दाने तो मिलते ही हैं, कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है, कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है, उससे कुछ तन्दुरुस्ती भी बनती है।
फिर भी यह सच है कि कथा-काव्य की रचना, आदि से अन्त तक, केवल दाहिने हाथ के भरोसे नहीं की जा सकती। जब मन ऊबने लगता है और प्रतिभा आगे बढ़ने से इनकार कर देती है, तब हमारा उपेक्षित बायाँ हाथ हमारी सहायता को आगे बढ़ता है। मगर, बेचारा बायाँ हाथ तो बायाँ ही ठहरा! वह चमत्कार तो क्या दिखलाए, कवि की कठिनाइयों का कुछ परदा ही खोल देता है। और इस क्रम में खुलनेवाली कमज़ोरियों को ढँकने के लिए कवि को नाना कौशलों से काम लेना पड़ता है।
यह तो हुई महाकाव्यों की बात। अगर इस ‘रश्मिरथी’ काव्य को सामने रखा जाय, तो मेरे जानते इसका आरम्भ ही बायें हाथ से हुआ है और आवश्यकतानुसार अनेक बार कलम बायें से दाहिने और दाहिने से बायें हाथ में आती- जाती रही है। फिर भी, खत्म होने पर चीज़ मुझे अच्छी लगी। विशेषतः मुझे इस बात का सन्तोष है कि अपने अध्ययन
और मनन से मैं कर्ण के चरित को जैसा समझ सका हूँ, वह इस काव्य में ठीक से उतर आया है और उसके वर्णन के बहाने मैं अपने समय और समाज के विषय में जो कुछ कहना चाहता था, उसके अवसर भी मुझे यथास्थान मिल गए हैं।
इस काव्य का आरम्भ मैंने 16 फरवरी, सन् 1950 ई. को किया था। उस समय मुझे केवल इतना ही पता था कि प्रयाग के यशस्वी साहित्यकार पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र कर्ण पर एक महाकाव्य की रचना कर रहे हैं। किन्तु, ‘रश्मिरथी’ के होते-होते हिन्दी में कर्ण-चरित पर कई नूतन और पूरा रमणीय काव्य निकल गए। यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है। अतएव, यह बहुत स्वाभाविक है कि राष्ट्र-भारती के जागरूक कवियों का ध्यान उस चरित की ओर जाए जो हज़ारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूक प्रतीक बनकर खड़ा रहा है। ‘रश्मिरथी’ में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है : मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे, पूछेगा जग, किन्तु, पिता का नाम न बोल सकेंगे; जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा, मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़नेवाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता है, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार, व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है, वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्ण-चरित का उद्धार एक तरह से, नई मानवता की स्थापना का ही प्रयास है और मुझे सन्तोष हैं कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं, अपने अनेक सुयोग्य सहधर्मियों के साथ हूँ।
कर्ण का भाग्य, सचमुच, बहुत दिनों के बाद जगा है। यह उसी का परिणाम है कि उसके पार जाने के लिए आज जलयान पर जलयान तैयार हो रहे हैं। जहाजों के इस बड़े बेड़े में मेरी ओर से एक छोटी-सी डोंगी ही सही।
विनीत
मुजफ्फरपुर चैत्र, रामनवमी
संवत् 2009
– दिनकर
दान जगत् का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है। बचते वही समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं, ऋतु का ज्ञान नहीं जिनको, वे देकर भी मरते हैं।
[ रश्मिरथी: चतुर्थ सर्ग ]
ब्रह्मण्यः सत्यवादी च तपस्वी नियतव्रतः, रिपुष्वपिदयावांश्चतस्मात्कर्णोवृषः स्मृतः ।
[श्रीकृष्णवचन]
बहुनात्र किमुक्तेन संक्षेपात् शृणु पाण्डव, त्वत्समं त्वद्विशिष्टं वा कर्ण मन्ये महारथम् ।
[श्रीकृष्णवचन]
हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का, दलित-तारक, समुद्धारक त्रिया का, बड़ा बेजोड़ दानी था, सदय था, युधिष्ठिर! कर्ण का अदभुत हृदय था।
[रश्मिरथी : सप्तम सर्ग ]

भूमिका

– प्रथम सर्ग
– द्वितीय सर्ग
– तृतीय सर्ग
– चतुर्थ सर्ग
– पञ्चम सर्ग
– षष्ठ सर्ग
– सप्तम सर्ग
क्रम
 

हुंकार

तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली! मत फिर यों इतराती दिल्ली! अविदित नहीं हमें तेरी
कितनी कठोर है छाती दिल्ली!
हाय! छिनी भूखों की रोटी, छिना नग्न का अर्द्ध वसन है; मजदूरों के कौर छिने हैं,
  • जिन पर उनका लगा दसन है!

क्रान्ति का कवि

राष्ट्रीय कविता की जो परम्परा ‘भारतेन्दु’ से प्रारम्भ हुई, उसकी परिणति हुई है ‘दिनकर’ में।
जबकि चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार था, दरबार के विषाक्त वायुमंडल ने बेचारी कविता को बहू-बेटियों के नग्न-सौन्दर्य-वर्णन की बेहयाई मात्र बना रखा था, दूज के चाँद की तरह, एक पतली-सी प्रकाश- रेखा पश्चिम-क्षितिज पर दीख पड़ी। पहली बार लोगों ने सुना :
आवहु सब मिलि के रोवहु भारत-भाई
‘भारत दुर्दशा’ पर प्रकट की गई इस रुदन-ध्वनि का उत्तर दिया भारत पर अपनी जवानी और जिन्दगी कुर्बान कर देनेवाली महारानी लक्ष्मीबाई की प्यारी झाँसी के एक चिरगाँव ने। शायद, नगरों में वह हृदय न रह गया था, जो देश-माता के नाम के इस रुदन को सके। वह गुलामी के पट्टे के चाकचिक्य पर मुग्ध हो रँगरलियाँ मना रहा था।
सुन भी चिरगाँव ने अपनी पूरी ‘भारती’ को ही भारत के नाम पर उत्सर्ग करके आकांक्षा की :
भगवान्, भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती ।
निस्सन्देह, उसकी भारती गूँजी, समूचे हिन्दी- भारत में गूंजी। शतपुरा की तलहटी तक गूँज उठी। नर्मदा-तट की एक कुटी में जलती हुई साधना
की धनी की लपटों में ज्वार आया। रुदन-क्रन्दन, गूँज-गायन नहीं, एक ललकार देश के तरुणों के प्रति, जिसकी टेक थी : बलिदान, बलिदान!
बलिदान भी कैसा!
सफलता पाई अथवा नहीं, उन्हें क्या ज्ञात है? दे चुके प्राण। विश्व को चाहिए उच्च विचार? नहीं, केवल अपना बलिदान । ‘भारतीय आत्मा’ का यह आह्वान, और देश में सचमुच बलिदानों का एक ताँता लग गया। सूलियों की सेज, उछलती लाशें। माँ की बलिवेदी लाल हो रही थी।
इस लाल वेदी से एक लाल देवी का आविर्भाव अनिवार्य था। क्या आपकी आँखें उसे देख पाती हैं?
यदि वैसे आप देख नहीं पाते, तो ‘दिनकर’ के प्रकाश में देखें उसे। जो पश्चिमी क्षितिज पर शान्त-स्निग्ध ‘इन्दु’ था, वह पूरब में ‘दिनकर’ होकर अभी-अभी उगा है। उसके प्रकाश में अरुणिमा है, तरुणाई की सूचना, या उस देवी की प्रतिच्छाया?
हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में, इस समय ‘दिनकर’ कर रहा है।
क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मन्थनों से गुजरना होता है, ‘दिनकर’ की कविता उनकी सच्ची तसवीर रखती है।
क्रान्तिकारियों के भी दिल होता है, दिल में प्रेम नामक बिना व्याख्या की एक अनुभूति होती है; वह भी किसी को चाहता है, किसी पर अपने को न्योछावर करना चाहता है; बसन्त उसके दिल में भी गुदगुदी लाता है, बरसात उसके हृदयाकाश में भी कभी रिमझिम कर उठती है, सौन्दर्य चुम्बक की तरह उसकी आँखों को भी पकड़ लेता है।
लेकिन, वह करे तो क्या? उसी समय उनके कानों में कुछ दूसरी ही रागिनी बज उठती है, उसकी आँखें कुछ दूसरे ही दृश्य देखने लगती हैं :
रणित विषम रागिनी मरण की आज विकट हिंसा-उत्सव में, दबे हुए अभिशाप मनुज के लगे उदित होने फिर भव में; शोणित से रँग रही शुभ्र पट संस्कृति निठुर लिए करवालें, जला रही निज सिंह-पौर पर दलित-दीन की अस्थि-मशालें । और, उसे मालूम होता है, कोई शक्ति उसे बुला रही है—जगा रही है। यह कौन? यह तो वही है। वह झिझक उठता है, अरी :
यह कैसा आह्वान!
समय-असमय का तनिक न ध्यान।
तुम्हारी भरी सृष्टि के बीच
सुधा-मधु
एक क्या तरल अग्नि ही पेय?
का अक्षय
भांडार
एक मेरे ही हेतु अदेय?
‘उठो’, सुन उहूँ, हुई क्या देवि,
नींद भी अनुचर का अपराध?
‘मरो’, सुन मरूँ, नहीं क्या शेष
अभी दो-दिन जीने की साध?
लेकिन, दूसरे ही क्षण, वह प्रकृतिस्थ होता है। अरे, उसका जीवन तो समर्पित है! उस पर उसका क्या अधिकार? और, मानो वह गरज उठता है :
फेंकता हूँ लो, तोड़-मरोड़ अरी निष्ठुरे! बीन के तार, उठा चाँदी का उज्ज्वल शंख फूँकता हूँ भैरव हुंकार। नहीं जीते जी सकता देख विश्व में झुका तुम्हारा भाल, वेदना-मधु का भी कर पान आज उगलूँगा ग़रल कराल ।
गरल, गरल, गरल! क्रान्तिकारी की जिन्दगी में अमृत का स्थान कहाँ? और, हिन्दुस्तान की क्रान्ति आज जो नया रूप ले रही है, उससे भी वह अपरिचित नहीं। मालूम होता है, मानो, अब तो उसकी कविता का वही प्रमुख प्रेरक है।
एक दिन उसकी कविता ने उससे मचल कर रहा था : कवि! असाढ़ की इस रिमझिम में धन-खेतों में जाने दे; कृषक-सुन्दरी के स्वर में अटपटे गीत कुछ गाने दे दुखियों के केवल उत्सव में इस दम पर्व मनाने दे, रोऊँगी खलिहानों में खेतों में तो हर्षाने दे।
लेकिन, अब तो वह खुद भी कहता है :
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है, छुटे बैल से संग, कभी जीवन में ऐसा याम नहीं है। मुख में जीभ, शक्ति भुज में, जीवन में सुख का नाम नहीं है, वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है। यही नहीं, वह उस दिन ‘नई दिल्ली’ को देखकर भी कह उठा था : आहें उठीं दीन कृषकों की, मजदूरों की तड़प, पुकारें; अरी, गरीबों के लोहू पर, खड़ी हुई तेरी दीवारें । ‘नई दिल्ली’ को उसने एक नवीन विशेषण भी दिया है :
कृषक-मेध की रानी दिल्ली!
कभी हमारे राजे अश्वमेध, गोमेध करते थे; नई दिल्ली कृषक-मेध करती है, वह उसकी रानी है ।
सबसे बढ़कर हमारे आज के समाज में स्त्रियों की नग्नता और बच्चों की भूख— ये दो चीजें ऐसी हैं जो ‘दिनकर’ के भावुक हृदय को क्रान्ति के लिए सबसे अधिक प्रेरित करती हैं। अपने ‘हाहाकार’ में बच्चों की भूख और दूध के लिए उनकी चिल्लाहट का उसने ऐसा वर्णन किया है, जो पत्थर के दिल को भी पिघला सकता है :
कब-कब्र में अबुध बालकों की भूखी हड्डी रोती है, ‘दूध-दूध’ की कदम-कदम पर सारी रात सदा होती है।
‘दूध-दूध’ ओ वत्स, मन्दिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं! ‘दूध-दूध’ तारे, बोलो इन बच्चों के भगवान् कहाँ हैं? भगवान् बहरें हों, तारे न बोलें-लेकिन कवि चुप बैठनेवाला नहीं। वह कहता है :
हटो व्योम के मेघ! पन्थ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं, ‘दूध-दूध’, ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।
मालूम होता है, ‘दिनकर’ ने क्रान्ति को निकट से देखा है और उसने उसे एक अच्छा-सा नाम भी दे दिया है-‘विपथगा’! विपथगा क्यों? वह खुद कहेगी :
मुझ विपथगामिनी को न ज्ञात
किस रोज, किधर से आऊँगी?
जिसके आने-जाने का ठौर-ठिकाना नहीं, उसका दूसरा क्या नाम हो?
इस विपथगा को कवि ने भारतीय रूप दिया है। यह सिर पर छत्र- मुकुट रखती है; कुमारी है, तो भी सिन्दूर लगाती है; आँखों में अंजन देती है और रंगीन चीर पहन कर नाचती है। लेकिन इसके मुकुट, सिन्दूर, अंजन और चीर-सब असाधारण हैं। कैसे?
मेरे मस्तक का छत्र-मुकुट वसु-काल-सर्पिणी के शत फण, मुझ चिर-कुमारिका के ललाट पर नित्य नवीन रुधिर-चन्दन, आँजा करती हूँ चिता-धूम का दृग में अन्ध-तिमिर अंजन, संहार-लपट का चीर पहन नाचा करती मैं छूम छनन। और नाचना शुरू किया कि एक अजीब दृश्य :
पायल की पहली झनक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है, पड़ते जिस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है।
‘भूगोल उधर दब जाता है’
-आप इसे अत्युक्ति कहेंगे, लेकिन दुनिया का इतिहास इसका साक्षी है।
विश्व-साहित्य में क्रान्ति पर जितनी कविताएँ हैं, ‘दिनकर’ की ‘विपथगा’ उनमें से किसी के भी समकक्ष आदर का स्थान पाने की योग्यता रखती है।
क्रान्ति-सम्बन्धी उसकी दूसरी कविता ‘दिगम्बरि’ भी हिन्दी-संसार में जोड़ नहीं रखती। मालूम होता है, कवि आँखों, देखी, कानों, सुनी बात कह रहा है : धरातल को हिला गूँजा धरणि में राग कोई, तलातल से उभरती आ रही है आग कोई, दिशा के बन्ध से झंझा विकल है छूटने को, धरा के वक्ष से आकुल हलाहल फूटने को ।
और, इस क्रान्ति के वाहन कौन होंगे? युवक ही तो? अतः ‘दिनकर’ एक मौका भी ऐसा नहीं जाने देता, जब वह इन युवकों से दो-दो बातें न कर ले। कभी वह उन्हें उलाहना देता है :
खेल रहे हिलमिल घाटी में कौन शिखर का ध्यान करे? ऐसा वीर कहाँ कि शैल-रुह फूलों का मधु-पान करे। कभी उन्हें वह चेतावनी देता है :
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले, कालकूट पहले पी लेना, सुधा-बीज बोनेवाले । दोस्तो, याद रखो
धरकर चरण विजित शृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं, अपनी उँगली पर जो खंजर की जंग छुड़ाते हैं। पड़ा समय से होड़, खींच मत तलवों से काँटे रुक कर, फूँक-फूँक चलती न जवानी चोटों से बचकर, झुककर ।
उन्हें ‘जय-यात्रा’ के लिए उत्तेजित करते हुए, मानो, आखिरी बार कवि कहे देता है :
चल यौवन उद्दाम, चल, चल बिना विराम, विजय-मरण, दो घाट, समर के बीच कहाँ विश्राम?
अन्त में एक बात ।
जब मैंने राष्ट्रीय कविता के विकास के सिलसिले में भारतेन्दु मैथिलीशरण, भारतीय आत्मा और दिनकर को लिया है, तो उसका मतलब यह नहीं कि इनके अतिरिक्त किसी ने देशमाता के चरणों पर अपनी श्रद्धांजलि चढ़ाई ही नहीं।
नहीं, यह कहना गुस्ताखी होगा-अक्षम्य अपराध होगा।
ये तो ‘मील के पत्थर’ मात्र हैं-खास दूरी के सूचक। बीच में और भी कितनी ही प्रणम्य, नमस्य देव-मूर्त्तियाँ हैं; किन्तु बीच में ही। ‘दिनकर’ के आगे का मैदान अभी उसी का है। यह मेरा आज का दावा है। कल की बात मैं नहीं कहता।
काशी
रंगभरी, एकादशी
1995 fa.
– रामवृक्ष बेनीपुरी
 

आमुख

समय-दूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये; आज खोजते उन्हें बुलाने वर्तमान के पल आये?
“शैल-शृंग चढ़ समय सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे, किन्तु, ज्ञात क्या तुम्हें, भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे?
दो वज्रों का घोष, विकट संघात धरा पर जारी है, वह्नि-रेणु, चुन स्वप्न सजा लो, छिटक रही चिनगारी है।
रण की घड़ी, जलन की वेला, रुधिर-पंक में गान करो, अपना साकल धरो कुंड में, कुछ तुम भी बलिदान करो।”
वर्तमान के हठी बाल ये रोते हैं, बिल्लाते हैं, रह-रह हृदय चौंक उठता है, स्वप्न टूटते जाते हैं।
भृंग छोड़ मिट्टी पर आया, किन्तु, कहो क्या गाऊँ मैं? जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीतों से समझाऊँ मैं?
विधि का शाप, सुरभि-साँसों पर लिखूँ चरित मैं क्यारी का, चौराहे पर बँधी जीभ से मोल करूँ चिनगारी का?
यह बेबसी, गगन में भी छूता धरती का दाह मुझे, ऐसा घमासान मिट्टी पर मिली न अब तक यह मुझे।
तुम्हें चाह जिसकी, वह कलिका इस वन में खिलती न कहीं, खोज रहा मैं जिसे, जिन्दगी वह मुझको मिलती न कहीं।
किन्तु, न बुझती जलन हृदय की, हाय, कहाँ तक हूक सहूँ? बुलबुल सोना चाक करे औ’ मैं फूलों-सा मूक रहूँ? रण की घड़ी, जलन की वेला, तो मैं भी कुछ गाऊँगा, सुलग रही यदि शिखा यज्ञ की, अपना हवन चढ़ाऊँगा।
‘वर्तमान की जय’ अभीत हो खुलकर मन की पीर बजे, एक राग मेरा भी रण में, बन्दी की जंजीर बजे । नई किरण की सखी, बाँसुरी के छिद्रों से लूक उठे, साँस-साँस पर, खड्ग-धार पर नाच हृदय की हूक उठे।
नये प्रात के अरुण! तिमिर-उर में मरीचि-सन्धान करो, युग के मूक शैल! उठ जागो, हुंकारो, कुछ गान करो। किसकी आहट? कौन पधारा? पहचानो, टुक ध्यान करो। जगो भूमि! अति निकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो।
‘जय हो’, युग के देव पधारो! विकट, रुद्र, हे अभिमानी! मुक्त-केशिनी खड़ी द्वार पर कब से भावों की रानी। अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि! बुनो कल्पना की जाली, तिमिर ज्योति की समर-भूमि का मैं चारण, मैं वैताली ।
होलिकोत्सव, 1995 वि.

अनुक्रम

– क्रान्ति का कवि
– आमुख
– असमय आह्वान
– स्वर्ग-दहन
– आलोक धन्वा चाह एक
– हाहाकार दिगम्बर! अनल-किरीट
– भीख
– वन-फूलों की ओर
– शब्द- बेध
– वसन्त के नाम पर प्रणति
– मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी
– दिल्ली
– व्यक्ति
– पराजितों की पूजा हिमालय
– आश्वासन
– फूलों के पूर्वजन्म सिपाही
– कल्पना की दिशा तकदीर का बँटवारा विपथगा
– भविष्य की आहट
– साधना और द्विधा कविता का हठ परिचय
 

उर्वशी

गीत आता है मही से?
या कि मेरे ही रुधिर का राग
यह उठता गगन में?
बुलबुलों-सी फूटने लगतीं मधुर स्मृतियाँ हृदय में; याद आता है मंदिर उल्लास में फूला हुआ वन, याद आते हैं तरंगित अंग के रोमांच, कम्पन, स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल-से खिलते हुए मुख, याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख । कामनाएँ प्राण को हिलकोरती हैं। चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में।

भूमिका

पुरूरवा और उर्वशी की कथा कई रूपों में मिलती है और उसकी व्याख्या भी कई प्रकार से की गई है। राजा पुरूरवा सोम-वंश के आदि-पुरुष हुए हैं। उनकी राजधानी प्रयाग के पास, प्रतिष्ठानपुर में थी। पुराणों में कहा गया है कि जब मनु और श्रद्धा को सन्तान की इच्छा हुई, उन्होंने वशिष्ठ ऋषि से यज्ञ करवाया। श्रद्धा की मनोकामना थी कि वे कन्या की माता बनें, मनु चाहते थे कि उन्हें पुत्र प्राप्त हो। किन्तु, इस यज्ञ से कन्या ही उत्पन्न हुई। पीछे, मनु की निराशा से द्रवित होकर वशिष्ठ ने उसे पुत्र बना दिया। मनु के इस पुत्र का नाम सुद्युम्न पड़ा ।
युवा होने पर सुद्युम्न, एक बार आखेट करते हुए किसी अभिशप्त वन में जा निकले और शापवश, वे युवा नर से युवती नारी बन गए और उनका नाम इला हो गया। इसी इला का प्रेम चन्द्रमा के नवयुवक पुत्र बुध से हुआ, जिसके फलस्वरूप, पुरूरवा की उत्पत्ति हुई। इसी कारण, पुरूरवा को ऐल भी कहते हैं और उनसे चलनेवाले वंश का नाम चन्द्रवंश है।
उर्वशी की उत्पत्ति के विषय में दो अनुमान हैं। एक तो यह कि जब अमृत-मन्थन के समय समुद्र से अप्सराओं का जन्म हुआ, तब उर्वशी भी उन्हीं के साथ जन्मी थी। दूसरा यह कि नारायण ऋषि की तपस्या में विघ्न डालने के निमित्त जब इन्द्र ने उनके पास अनेक अप्सराएँ भेजीं,  वैदिक प्रसंग का प्रत्यावर्तन मेरा ध्येय नहीं रहा। मेरी दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का।
‘उर्वशी’ शब्द का कोशगत अर्थ होगा उत्कट अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा अथवा कामना। और ‘पुरूरवा’ शब्द का अर्थ है : वह व्यक्ति, जो नाना प्रकार का रव करे, नाना ध्वनियों से आक्रान्त हो।
उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है; पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य ।
पुरूरवा द्वन्द्व में है, क्योंकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी।
नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर नारी के आलिंगन में सन्तोष मानता है। कोई शक्ति है जो नारी को नर तथा नर को नारी से अलग रहने नहीं देती, और जब वे मिल जाते हैं, तब भी, उनके भीतर किसी ऐसी तृषा का संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है।
नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का सन्धान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते- उछालते, उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, उसे वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँच कर निस्पन्द हो जाता है। और पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है।
परिरम्भ-पाश में बँधे हुए प्रेमी, परस्पर एक-दूसरे का अतिक्रमण करके, एक ऐसे लोक में पहुँचना चाहते हैं, जो किरणोज्ज्वल और वायवीय है।  वैदिक प्रसंग का प्रत्यावर्तन मेरा ध्येय नहीं रहा। मेरी दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का।
‘उर्वशी’ शब्द का कोशगत अर्थ होगा उत्कट अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा अथवा कामना। और ‘पुरूरवा’ शब्द का अर्थ है : वह व्यक्ति, जो नाना प्रकार का रव करे, नाना ध्वनियों से आक्रान्त हो।
उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है; पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य । पुरूरवा द्वन्द्व में है, क्योंकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी।
नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर नारी के आलिंगन में सन्तोष मानता है। कोई शक्ति है जो नारी को नर तथा नर को नारी से अलग रहने नहीं देती, और जब वे मिल जाते हैं, तब भी, उनके भीतर किसी ऐसी तृषा का संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है।
नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का सन्धान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते- उछालते, उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, उसे वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँच कर निस्पन्द हो जाता है।
और पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है।
परिरम्भ-पाश में बँधे हुए प्रेमी, परस्पर एक-दूसरे का अतिक्रमण करके, एक ऐसे लोक में पहुँचना चाहते हैं, जो किरणोज्ज्वल और वायवीय है।  इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।
देश और काल की सीमा से बाहर निकलने का एक मार्ग योग है, किन्तु, उसकी दूसरी राह नर-नारी-प्रेम के भीतर से भी निकलती है, मनुष्य का यह अनुमान अत्यन्त प्राचीन है। तन्त्र-साधना के मूल में ऐसा कोई-न-कोई विश्वास रहा होगा; सहजमार्गियों के मन में ऐसी कोई-न- कोई भावना काम करती होगी, अभिनव मनोविज्ञान के भीतर भी ऐसी कोई-न-कोई प्रेरणा क्रियाशील है।
काम-सुख की इन्हीं निराकार झंकृतियों का आख्यान मनोविज्ञान उदात्तीकरण की भाषा में करता है। प्रेम की एक उदात्तीकृत स्थिति वह भी है जो समाधि से मिलती-जुलती है। जिसके व्यक्तित्व का देवोपम विकास हुआ है, जिसके स्नायविक तार चेतन और सजीव हैं तथा जिसका मन, स्वभाव से ही, ऊर्ध्वगामी और उड्डयनशील है, उसे काम के स्पर्श मात्र से इस समाधि का बोध होता है।
तत्पाणिस्पर्शसौख्यं परमनुभवति सच्चिदानन्दरूपम्
तत्रासीत् वाणभिन्ना रमणारतिपतेः योगनिद्रां गतेव ।
मनुष्य के इस द्वन्द्व का, साकार से ऊपर उठकर निराकार तक जाने की इस आकुलता अथवा ऐन्द्रियता से निकलकर अतीन्द्रिय जगत् में आँख खोलने की इस उमंग का प्रतीक पुरूरवा है।
किन्तु, उर्वशी द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त है। देवियों में द्वन्द्व नहीं होता, वे त्रिकाल अनुद्विग्न, निर्मल और निष्पाप होती हैं। द्वन्द्वों की कुछ थोड़ी अनुभूति उसे तब होती है, जब वह माता अथवा पूर्ण मानवी बन जाती है, जब मिट्टी का रस उसे पूर्ण रूप से अभिसिक्त कर देता है।
भावना और तर्क, हृदय और मस्तिष्क, कला और विज्ञान अथवा निरुद्देश्य आनन्द और सोद्देश्य साधना, मानवीय गुणों के ये जोड़े नवीन मनुष्य को भी दिखाई देते हैं और वे प्राचीन मानव को भी दिखाई पड़े  थे। मनु और इडा का आख्यान तर्क, मस्तिष्क, विज्ञान और जीवन की सोद्देश्य साधना का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के अर्थ-पक्ष को महत्त्व देता है। किन्तु, पुरूरवा-उर्वशी का आख्यान भावना, हृदय, कला और निरुद्देश्य आनन्द की महिमा का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के काम-पक्ष का माहात्म्य बताता है।
जैसे पुरुषार्थ के तीन अंग कहे गए हैं, वैसे ही, मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व के धरातल भी तीन हैं। मनुष्य के सारे व्यक्तित्व, समग्र जीवन का आधार उसकी जैव भावनाओं का धरातल है। यह वह धरातल है जिस पर मनुष्य और पशुओं में भेद नहीं है और यही धरातल सबसे प्रबल और सबसे प्राचीन भी है। मनुष्य को पशुओं से भिन्न करनेवाले, बुद्धि और आत्मा के दो धरातल, बाद को, उत्पन्न हुए। वैसे आत्मा तो पशुओं में भी है, किन्तु, सदसद् विवेक की शक्ति, जो मानवता का प्रधान गुण है, पशुओं में नहीं होती।
किन्तु मनुष्य ने जिस परिमाण में बुद्धि अर्जित की, उसी परिमाण में उसने सहज प्रवृत्ति (इंस्टिक्ट) की शक्ति को खो दिया। तब भी, बुद्धि थोड़ी पशुओं में भी है और सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी, मनुष्य में भी झलक मारती है। भेद यह है कि पशु का सारा जीवन सहज प्रवृत्ति से चलता है, केवल उसके किनारे-किनारे बुद्धि की हलकी झालर विद्यमान है। और मनुष्य के सारे जीवन का आधार बुद्धि है, सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी ही, बिजली की तरह उसमें कौंध जाती है।
तब भी, मनुष्य का सर्वोत्तम काव्य सर्वोच्च दर्शन और विज्ञान के आशातीत आविष्कार, ये सब-के-सब, सम्बुद्धि (इनटुइशन) से संकेतित होते हैं, जो बहुत कुछ सहज प्रवृत्ति के ही समान हैं।
अर्थ और काम, ये जैव धरातल के पुरुषार्थ हैं, किन्तु, धर्म का जन्म आत्मा के धरातल पर होता है। बुद्धि इन दोनों धरातलों की सेविका और सहायक है। किन्तु, अर्थ की सेवा वह जिस सहजता से करती है, उसी
धर्मादर्थो अर्थतः कामः कामाद्धर्म-फलोदयः ।
पद्मपुराणा
धर्म से अर्थ और अर्थ से काम की प्राप्ति होती है, किन्तु, काम से
फिर हमें धर्म के ही फल प्राप्त होते हैं।
जीवन में सूक्ष्म आनन्द और निरुद्देश्य सुख के जितने भी सोते
हैं, वे, कहीं-न-कहीं, काम के पर्वत से फूटते हैं। जिसका काम कैटिंग उपेक्षित अथवा अवरुद्ध है, वह आनन्द के अनेक सूक्ष्म रूपों से वंचित केवल अर्थ को पकड़ा है; न्यायतः, उकठा काठ तो उस साधक को भी रह जाता है। हीन केवल वही नहीं है, जिसने धर्म और काम को छोड़कर कहना चाहिए, जो धर्म-सिद्धि के प्रयास में अर्थ और काम, दोनों से युद्ध कर रहा है।
धर्मार्थकामं सममेव सेव्यं,
यः एकसेवी स नरो जघन्यः ।
पुरूरवा और उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर नहीं रुकता, वह शरीर से जन्म लेकर मन और प्राण के गहन, गुह्य लोकों में प्रवेश करता है, रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य और आत्मा के अन्तरिक्ष में विचरण करता है।
पुरूरवा के भीतर देवत्व की तृषा है। इसलिए, मर्त्य लोक के नाना सुखों में वह व्याकुल और विषण्ण है।
उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। वह सहज, निश्चिन्त भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है।
पुरूरवा की वेदना समग्र मानव-जाति की चिरन्तन वेदना से ध्वनित किन्तु, मानवता की यह वेदना उत्पन्न कहाँ से होती है? मानव-मन का यह दुःसाध्य संघर्ष आता है कहाँ से?
आत्मा का धरातल मनुष्य को ऊपर खींचता है और जैव धरातल किन्तु,
सहजता से वह धर्म और काम की सेवा नहीं कर सकती। अर्थ के उपकरण भोजन, छाजन, मोटर, महल, सेना, समाज और मनुष्य के सारे भौतिक अभियान हैं, जो बुद्धि के वृत्त में पड़ते हैं। काम के अंग कला, सुरुचि, सौन्दर्यबोध और प्रेम हैं, जो मुख्यतः, सम्बुद्धि के संकेतित होते हैं। इसी प्रकार, बुद्धि धर्म को भी सिद्ध नहीं करती। धर्म बराबर सम्बुद्धि से प्रेरणा पाता है।
धर्म का जन्म आत्मा के धरातल पर होता है, किन्तु, सार्थकता उसकी तब है, जब वह जैव धरातल पर आकर हमारे आचरणों को प्रभावित करे।
कला, सुरुचि, सौन्दर्यबोध और प्रेम, इनका जन्म जैव धरातल पर होता है, किन्तु, सार्थकता उनकी तब सिद्ध होती है, जब वे ऊपर उठकर आत्मा के धरातल को स्पर्श करते हैं।

मूल

साहित्य के नौ मूल भावों में से रति, क्रोध, भय और घृणा-ये भाव भैंस में भी होते हैं, किन्तु, पशुओं में जो भाव अनगढ़ और कुरूप हैं, मनुष्य में आकर वे अनेक रंग-रूपों में बदलकर निस्सीम हो गए हैं, क्योंकि मनुष्य में बुद्धि और कल्पना की शक्ति है, जो पशुओं में नहीं है। पशुओं में जो प्रेरणा ऋतु-धर्म से एकाकार है, मनुष्यों में वह ऋतु- धर्म का बन्धन नहीं मानती, न वह प्रजासृष्टि की सीमा पर समाप्त होती है। काम-शक्ति पशु-जगत् में आवश्यकता और उपयोग की सीमा में है। मनुष्य में आकर वह ऐसे आनन्द का कारण बन गई है जो निष्प्रयोजन, निस्सीम और निरुद्देश्य है। वह नित्य नये-नये पुलकों की रचना करती है, नई-नई कल्पनाओं को जन्म देती है और मनुष्य को नित्य नवीन स्फुरणों से अनुप्राणित रखती है। यह सच है कि काम के क्षेत्र में पशुओं को जो स्वाधीनता प्राप्त है, वह मनुष्यों को नहीं है। किन्तु, कामजन्य स्फुरणों, प्रेरणाओं और सुखों का जो अनन्तव्यापी प्रसार मनुष्य में है, वह कल्पनाहीन जन्तुओं में नहीं हो सकता। और मनुष्यों में भी जो लोग का आकर्षण नीचे की ओर है। मनुष्य जब पशुओं से अलग होने लगा, यह वेदना तभी से उसके साथ हो गई। मानवता ही मनुष्य की वेदना का उत्तम नाम है।
मनुष्य ने देवताओं की जो कल्पना कर रखी है, उसके गज से अपने-आपको नापने में वह असमर्थ है।
यदि मनुष्य अपनी गरदन तानकर मस्तक से नक्षत्रों को छूने का प्रयास करे, तो उसके पाँव ज़मीन से उखड़ जाते हैं, वह वायु में निस्सहाय उड़नेवाला पत्ता बन जाता है।
और यदि वह पाँव जमा कर धरती पर खड़ा रहे, तो अपने मस्तक से वह नक्षत्र तो क्या, सामान्य वृक्षों के मौलि को भी नहीं छू सकता।
मनुष्य की कल्पना का देवता वह है, जो जल में उतरने पर भी जल से नहीं भींगता, जिसकी गरदन समुद्र की ऊँची-से-ऊँची लहरों से भी हाथ भर ऊँची दिखाई देती है।
किन्तु, मनुष्य का भाग्य ऐसा नहीं है। वह तरंगों से लड़ते-लड़ते भी उनसे भींग जाता है और बहुधा लहरें उसे बहाकर औघट घाट में फेंक देती हैं, भँवर का जाल बनकर उसे नीचे पाताल में गाड़ देती हैं।
तब भी, संघर्ष करना मनुष्य का स्वभाव है।
वह जल के समान सूर्य की किरणों पर चढ़कर आकाश पहुँचता है और बादलों के साथ पृथ्वी पर लौट आता है। और सूर्य की किरणें, एक बार फिर, उसे आकाश पर ले जाती हैं।
स्वर्ग और पृथ्वी के बीच घटित इस निरन्तर आवागमन से मनुष्य का निस्तार कभी होगा या नहीं, इसका विश्वसनीय ज्ञान नये मनुष्य को छोड़कर चला गया है। इसलिए मैं इस विषय में मौन हूँ कि पुरूरवा जब संन्यास लेकर चले गए, तब उनका क्या हुआ।
एक ओर देवत्व की ऊँची-ऊँची कल्पनाएँ; दूसरी ओर उफनाते हुए रक्त की अप्रतिहत पुकार और पग-पग पर घेरनेवाली ठोस वास्तविकता की अभेद्य चट्टानें, जो हुक्म नहीं मानतीं, जो पिघलना नहीं जानतीं। आदमी हवा और पत्थर के दो छोरों के बीच झटके खाता है, और झटका खाकर, कभी इस ओर, और कभी उस ओर से मुड़ जाता है। कभी प्रेम! कभी संन्यास! और संन्यास प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर सकता, न प्रेम संन्यास की क्योंकि प्रेम प्रकृति और परमेश्वर संन्यास है और मनुष्य को सिखलाया गया है कि एक ही व्यक्ति परमेश्वर और प्रकृति, दोनों को प्राप्त नहीं कर सकता।
उर्वशी पूछती है :
क्या ईश्वर और प्रकृति दो हैं?
क्या ईश्वर प्रकृति का प्रतिबल है? उसका प्रतियोगी है?
क्या दोनों एक साथ नहीं चल सकते?
क्या प्रकृति ईश्वर का शत्रु बनकर उत्पन्न हुई है?
अथवा क्या ईश्वर ही प्रकृति से रुष्ट है?
प्रकृति और परमेश्वर की एकता की एक अनुभूति, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन की एक झाँकी महर्षि च्यवन के चरित्र में झलक मारती है। जो नदी पुरूरवा के भीतर बेचैन होकर गरज रही है, वही च्यवन में आकर स्वच्छ, सुस्थिर, शीतल और मौन है।
संन्यास में समाकर प्रेम से और प्रेम में समाकर संन्यास से बचना जितना कठिन है, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन बिठाना, कदाचित, उससे भी कठिन कार्य है।
मनोविज्ञान जिस साधना का संकेत देने लगा है, वह वैराग्य नहीं, रागों से मैत्री का संकेत है; वह निषेध नहीं, स्वीकृति और समन्वय का संकेत है; वह संघर्ष नहीं, सहज, स्वच्छ, प्राकृतिक जीवन की साधना है।
देवता वह नहीं, जो सब कुछ को पीठ देकर, सबसे भाग रहा है। देवता वह है, जो सारी आसक्तियों के बीच अनासक्त है, सारी स्पृहाओं को भोगते हुए भी निस्पृह और निर्लिप्त है।
फिर वही बात! पानी पर चलो, किन्तु, पानी का दाग़ नहीं लगे। किन्तु, पानी पर चलकर भी पानी के दाग़ से बचता कौन है? क्या वह, जो औशीनरी और सुकन्या के साथ है? अथवा वह भी,
जो उर्वशी के प्रेम में है?
क्या वह, जो च्यवन की पत्नी है? अथवा वह भी, जो पुरूरवा की गोद में है?
प्रश्नों के उत्तर, रोगों के समाधान मनुष्यों के नेता दिया करते हैं। कविता की भूमि केवल दर्द को जानती है, केवल बेचैनी को जानती है, केवल वासना की लहर और रुधिर के उत्ताप को पहचानती है।
और वेदना की भूमि चूँकि पुरूरवा के संन्यास पर समाप्त नहीं हुई, इसलिए, औशीनरी की व्यथा ने कविता को वहाँ समाप्त होने नहीं दिया।
किन्तु, नेता की-सी एक बात एक जगह मैं भी कह गया हूँ।
जब देवी सुकन्या यह सोचती हैं कि नर-नारी के बीच सन्तुलन कैसे लाया जाए, तब उनके मुँह से यह बात निकल पड़ती है कि यह सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। इसीलिए, रचयिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व-हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किन्तु, पुरुषों की रचना यदि नारियाँ करने लगें, तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भावप्रवण एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा।
इस पर आयु यह दावा करता है कि मैं ही तो वह पुरुष हूँ, जिसका निर्माण नारियों ने किया है।
आयु का कहना ठीक था। और वह प्रसिद्ध राजा भी हुआ, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है। किन्तु, उल्लेख इस बात का भी है कि युवक राजा सुश्रवा ने आयु को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया था।
फिर वही बात!
पुरुष की रचना पुरुष करे तो वह त्रासक होता है; और पुरुष की
रचना नारी करे तो लड़ाई में वह हार जाता है।
समस्या युद्ध की हो अथवा प्रेम की, कठिनाइयाँ सर्वत्र समान हैं, में कोई नहीं मानता कि बघनखा पहनना अच्छा काम है। किन्तु, बाहर आते ही हर कोई उसे पहनना चाहता है, क्योंकि और लोग एकान्त बघनखे पहने हुए हैं।
युक्ति तो यही कहती है कि नक़ाब पहनकर असली चेहरे को छिपा लेने से पुण्य नहीं बढ़ता होगा। फिर भी, हर आदमी नक़ाब लगात है, क्योंकि नक़ाब पहने बिना घर से निकलने की, समाज की ओर से; मनाही है।
किन्तु, उस प्रेरणा पर तो मैंने कुछ कहा ही नहीं, जिसने आठ वर्ष तक ग्रसित रखकर यह काव्य मुझसे लिखवा लिया।
अकथनीय विषय!
शायद अपने से अलग करके मैं उसे देख नहीं सकता; शायद, वह अलिखित रह गई; शायद, वह इस पुस्तक में व्याप्त है।
पटना
23 जून, 1961 ई.
– दिनकर

पात्र – परिचय

– प्रथम अंक
– द्वितीय अंक
– तृतीय अंक
– चतुर्थ अंक
– पंचम अंक
– परिशिष्ट
– अंकानुक्रम
रामधारी सिंह दिनकर
राष्ट्रकवि दिनकर छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति । वे संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू के भी बड़े | जानकार थे। वे ‘पद्मभूषण’ की उपाधि सहित ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ आदि से सम्मानित किए गए थे।
परशुराम की प्रतीक्षा
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये, मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाये। दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है, मरता है जो, एक ही बार मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे! जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!
आवरण : अनिल आहूजा

रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जन्म : 23 सितम्बर, 1908 को बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया नामक गाँव में हुआ था। शिक्षा मोकामा घाट के रेलवे हाईस्कूल तथा फिर पटना कॉलेज में हुई जहाँ से उन्होंने इतिहास विषय लेकर बी.ए. (ऑनर्स) की परीक्षा उत्तीर्ण की। एक विद्यालय के प्रधानाचार्य, सब-रजिस्ट्रार, जन-सम्पर्क के उप-निदेशक, भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति, भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार आदि विभिन्न पदों पर रहकर उन्होंने अपनी प्रशासनिक योग्यता का परिचय दिया। 1924 में पाक्षिक ‘छात्र सहोदर’ (जबलपुर) में प्रकाशित पहली कविता से साहित्यिक जीवन का आरम्भ ।
प्रमुख कृतियाँ : कविता-रेणुका, हुंकार, रसवन्ती, कुरुक्षेत्र, सामधेनी, बापू, धूप और धुआँ, रश्मिरथी, नील कुसुम, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व, हारे को हरिनाम -मिट्टी की ओर, अर्धनारीश्वर, संस्कृति के चार अध्याय, काव्य की भूमिका, पन्त, प्रसाद और मैथिलीशरण, शुद्ध कविता की खोज, संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ आदि ।सम्मान : 1959 में संस्कृति के चार अध्याय पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार और पद्मभूषण की उपाधि। 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय की तरफ से डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की मानद उपाधि। 1973 में उर्वशी पर ज्ञानपीठ पुरस्कार। अनेक बार भारतीय और विदेशी सरकारों के निमंत्रण पर विदेश यात्रा ।
निधन : 24 अप्रैल, 1974

दो शब्द

प्रथम संस्करण
इस संग्रह में कुल अठारह कविताएँ हैं, जिनमें से पन्द्रह ऐसी हैं जो पहले किसी भी संग्रह में नहीं निकली थीं। केवल तीन रचनाएँ ‘सामधेनी’ से लेकर यहाँ मिला दी गई हैं। यह इसलिए कि इन कविताओं का असली समय अब आया है।
नेफ़ा- युद्ध के प्रसंग में भगवान् परशुराम का नाम अत्यन्त समीचीन है। जब परशुराम पर मातृ-हत्या का पाप चढ़ा, वे उससे मुक्ति पाने को सभी तीर्थों में घूमते फिरे, किन्तु, कहीं भी परशु पर से उनकी वज्रमूठ नहीं खुली यानी उनके मन से पाप का भान नहीं दूर हुआ। तब पिता ने उनसे कहा कि कैलास के समीप जो ब्रह्मकुंड है, उसमें स्नान करने से यह पाप छूट जाएगा। निदान, परशुराम हिमालय पर चढ़कर कैलास पहुँचे और ब्रह्मकुंड में उन्होंने स्नान किया। ब्रह्मकुंड में डुबकी लगाते ही परशु उनके हाथ से छूटकर गिर गया अर्थात् उनका मन पाप-मुक्त हो गया।
तीर्थ को इतना जाग्रत् देखकर परशुराम के मन में यह भाव जगा कि इस कुंड के पवित्र जल को पृथ्वी पर उतार देना चाहिए। अतएव, उन्होंने पर्वत काटकर कुंड से एक धारा निकाली, जिसका नाम, ब्रह्मकुंड से निकलने के कारण, ब्रह्मपुत्र हुआ। ब्रह्मकुंड का एक नाम लोहित-कुंड भी मिलता है। एक जगह यह भी लिखा है कि ब्रह्मपुत्र की धारा परशुराम ने ब्रह्मकुंड से ही निकाली थी, किन्तु, आगे चलकर वह धारा लोहित-कुंड नामक एक अन्य कुंड में समा गई। परशुराम ने उस कुंड से भी धारा को आगे निकाला, इसलिए, ब्रह्मपुत्र का एक नाम लोहित भी मिलता है। स्वयं कालिदास ने ब्रह्मपुत्र को लोहित नाम से ही अभिहित किया है। और जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी पर्वत से पृथ्वी पर अवतीर्ण होती हैं, वहाँ आज भी परशुराम-कुंड मौजूद है, जो हिन्दुओं का परम पवित्र तीर्थ माना जाता है।
कुठार
लोहित में गिरकर जब परशुराम का कुठार पाप-मुक्त हो गया, तब उस से उन्होंने एक सौ वर्ष तक लड़ाइयाँ लड़ीं और समन्तपंचक में पाँच शोणित-हद बनाकर उन्होंने पितरों का तर्पण किया। जब उनका प्रतिशोध शान्त हो गया, उन्होंने कोंकण के पास पहुँचकर अपना कुठार समुद्र में फेंक दिया और वे नवनिर्माण में प्रवृत्त हो गए। भारत का वह भाग, जो अब कोंकण और केरल कहलाता है, भगवान् परशुराम का ही बसाया हुआ है।
लोहित भारतवर्ष का बड़ा ही पवित्र भाग है। पुराकाल में वहाँ परशुराम का पाप-मोचन हुआ था। आज एक बार फिर लोहित में ही भारतवर्ष का पाप छूटा है। इसीलिए, भविष्य मुझे आशा से पूर्ण दिखाई देता है।
तांडवी तेज फिर से हुंकार उठा है,
लोहित में था जो गिरा, कुठार उठा है।
कलकत्ता 9-1-1963.
– दिनकर

द्वितीय संस्करण की भूमिका

खुशी की बात है कि ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ का द्वितीय संस्करण प्रकाशित हो रहा है। जनता ने इस कविता के प्रति जो प्रेम और उत्साह दिखाया है, वह इस बात का प्रमाण है कि हमारी जाति का समीपवर्ती भविष्य उज्ज्वल और महान् है।
प्रथम संस्करण में ‘आज कसौटी पर गांधी की आग है’ नामक कविता में एक पद छपने से छूट गया था। वह कमी इस बार पूरी की जा रही है।
भागलपुर 7-3-1965.
– दिनकर

क्रम

– परशुराम की प्रतीक्षा
– जवानियाँ
– हिम्मत की रौशनी
– लोहे के मर्द
– जनता जगी हुई है
– आज कसौटी पर गांधी की आग है
– जौहर
– आपद्धर्म
– पाद-टिपणी (युद्ध काव्य की)
– शान्तिवादी
– अहिंसावादी का युद्ध-गीत
– इतिहास का न्याय
– एनार्की
– एक बार फिर स्वर दो-1
– एक बार फिर स्वर दो-2
– तब भी आता हूँ मैं
– समर शेष है
– जवानी का झंडा

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