विजयदेव नारायण साही: रचना-संचयन

प्रस्तावना

हिन्दी के विशिष्ट कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही का जन्म 7 अक्टूबर, 1924 ई. को बनारस के कबीर चौरा मोहल्ले में हुआ था। उनकी हाई स्कूल तक की शिक्षा बनारस में हुई। उसके बाद वे इलाहाबाद अपने बड़े भाई इन्द्रदेव नारायण साही के पास चले गये जो आई.सी.एस. थे और वहीं पदस्थापित थे। कर्नलगंज इण्टरमीडिएट कॉलेज से उन्होंने इण्टर किया। इसके बाद अँग्रेज़ी और फारसी विषय के साथ उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा पास की। फिर वहीं से अँग्रेजी साहित्य में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ एम.ए. की परीक्षा पास की।
अपने राजनीतिक गुरु आचार्य नरेन्द्रदेव की इच्छा के कारण एम.ए. करने के बाद साही काशी विद्यापीठ में अँग्रेज़ी के अध्यापक हो गये। कुछ वर्ष बाद आचार्यजी की अनुमति लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अँग्रेज़ी विभाग में आ गये, जहाँ बाद के वर्षों में वे रीडर और प्रोफेसर हुए। प्रारम्भ में उनकी माता ने उन्हें हिन्दी सिखलायी। बाद में उन्होंने स्वाध्याय से हिन्दी सीखी। जीवन भर वे हिन्दी समर्थक रहे। राममनोहर लोहिया के अँग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वे आजीवन हिन्दी में लिखते रहे और कभी अपने व्यक्तित्व पर अंग्रेजीयत को हावी नहीं होने दिया। अँग्रेज़ी के अध्यापक होने पर भी वे प्रायः खादी के धोती-कुर्ता में रहते थे।
साही के परिवार में संगीत की परम्परा थी। पिता संगीत के शौकीन थे। घर में तबला, हारमोनियम आदि वाद्य यन्त्र थे। पिता की देखा-देखी वे भी इन्हें बजाते थे। कहा जाता है कि साही अच्छे तबला वादक थे। उन्हें गाने का भी शौक था। और मन की मौज में अकेले या दोस्तों के बीच गाते भी थे। गाने बजाने के शौक के कारण साही की रुचि नाट्य-लेखन, नाट्य मंचन और अभिनय की ओर जाग्रत हुई। कहा जाता है कि उन्होंने कई नाटक लिखे, उन्हें मंचित किया और उनमें अभिनय भी किया।
जन्मे स्वर्गीय विजयदेव नारायण साही की शिक्षा वाराणसी और इलाहाबाद में पूरी हुई। शुरू के तीन वर्ष काशी विद्यापीठ में अध्यापन कार्य करने के बाद वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अँग्रेज़ी विभाग से सम्बद्ध हुए और वहीं 31 वर्षों तक निरन्तर प्राध्यापक रहे। एक समर्थ कवि, प्रखर आलोचक, मेधावी चिन्तक और जुझारू राजनीतिज्ञ-इन सबका अद्भुत समन्वय श्री साही के व्यक्तित्व में था। प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ :
‘तीसरा सप्तक’ (अन्य छह कवियों के साथ) के अलावा ‘मछलीघर’, ‘साखी’ और ‘संवाद तुमसे’ शीर्षक तीन स्वतन्त्र कविता-संग्रह, तथा ‘वर्धमान और पतनशील’, ‘साहित्य क्यों’ शीर्षक आलोचना-पुस्तक । ‘आलोचना’ (1953-58) और ‘नयी कविता’ (1953 से अन्तिम अंक तक) पत्रिकाओं के सम्पादन मण्डल के सक्रिय सदस्य ।
5 नवम्बर, 1982 को इलाहाबाद में निधन।

आमुख

कताओं में भारतीय आधुनिकता के एक मूर्धन्य सैयद हैदर रज़ा एक अथक और अनोखे चित्रकार तो थे ही उनकी अन्य कलाओं में भी गहरी दिलचस्पी थी। विशेषतः कविता और विचार में। वे हिन्दी को अपनी मातृभाषा मानते थे और हालाँकि उनका फ्रेंच और अँग्रेज़ी का ज्ञान और उन पर अधिकार गहरा था, वे फ्रांस में साठ वर्ष बिताने के बाद भी, हिन्दी में रमे रहे। यह आकस्मिक नहीं है कि अपने कला-जीवन के उत्तरार्द्ध में उनके सभी चित्रों के शीर्षक हिन्दी में होते थे। वे संसार के श्रेष्ठ चित्रकारों में 20-21वीं सदियों में, शायद अकेले हैं जिन्होंने अपने सौ से अधिक चित्रों में देवनागरी में संस्कृत, हिन्दी और उर्दू कविता में पंक्तियाँ अंकित कीं। बरसों तक मैं जब उनके साथ कुछ समय पेरिस में बिताने जाता था तो उनके इसरार पर अपने साथ नवप्रकाशित हिन्दी कविता की पुस्तकें ले जाता था उनके पुस्तक-संग्रह में, जो अब दिल्ली स्थित रज़ा अभिलेखागार का एक हिस्सा है, हिन्दी कविता का एक बड़ा संग्रह शामिल था। रज़ा की एक चिन्ता यह भी थी कि हिन्दी में कई विषयों में अच्छी पुस्तकों की कमी है। विशेषतः कलाओं और विचार आदि को लेकर। वे चाहते थे कि हमें कुछ पहल करनी चाहिए। 2016 में साढ़े चौरानवे वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु के बाद रजा फाउण्डेशन ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए हिन्दी में कुछ नये क़िस्म की पुस्तकें प्रकाशित करने की पहल रजा पुस्तक माला के रूप में की है, जिनमें कुछ अप्राप्य पूर्व प्रकाशित पुस्तकों का पुनःप्रकाशन भी शामिल है। उनमें गाँधी, संस्कृति-चिन्तन, संवाद, भारतीय भाषाओं से विशेषतः कला-चिन्तन के हिन्दी अनुवाद, कविता आदि की पुस्तकें शामिल की जा रही हैं।
हिन्दी साहित्य की नयी आधुनिकता के दौर में, जो 1950 के आसपास शुरू हुआ, विजयदेव नारायण साही की उपस्थिति और हस्तक्षेप बहुत मूल्यवान् रहे हैं। वे महत्त्वपूर्ण कवि, कुशाग्र आलोचक, सजग सम्पादक, मुक्त चिन्तक और ज़मीनी समाज-चिन्तक एक साथ थे। उनका समूचा साहित्य और सामाजिक कर्म, एक तरह से, बीच बहस में हुआ। उनका अपने समय के समाजवादी नेताओं विशेषतः राम मनोहर लोहिया से सार्थक संवाद था और उन्होंने बुनकरों आदि के कई आन्दोलनों में भाग लिया था। आलोचना में उनका जायसी का हमारे समय के लिए पुनराविष्कार, ‘लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ और ‘साखी’ कविता संग्रह की अनेक कविताओं के माध्यम से कबीर का पुनर्वास साहित्य के अत्यन्त विचारोत्तेजक और सर्जनात्मक मुकाम हैं। अपने समय में हावी हुई वाम दृष्टि के बरअक्स साही जी ने समानधर्मिता का ऐसा विकल्प रचने की कोशिश की जिसमें व्यक्ति और समष्टि एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हैं और परस्पर अतिक्रमण नहीं करते हैं।
गोपेश्वर सिंह ने मनोयोग और अध्यवसाय से साही जी की संचयिता तैयार की है जिससे आज के पाठकों को उनके वितान, जटिल संयोजन, साफगोई, वैचारिक प्रखरता और बौद्धिक-सर्जनात्मक उन्मेष से सीधा साक्षात्कार हो सकेगा। वर्तमान परिदृश्य में विजयदेव नारायण साही का यह पुनर्वास अपने आप में एक ज़रूरी हस्तक्षेप है। रज़ा फाउण्डेशन इस संचयिता को प्रस्तुत करने में प्रसन्नता अनुभव कर रहा है।
 -अशोक वाजपेयी
आमुख : अशोक वाजपेयी
प्रस्तावना : गोपेश्वर सिंह

अनुक्रम

  1. मानव-राग
  2. दर्द की देवापगा
  3. हिमालय के आँसू
  4. माघ  : 10 बजे दिन
  5. ख़ामोश धड़कनें
  6. चाँद की चाह
  7. बड़ा मुँह छोटी बात
  8. आज मैंने फिर

 कविता

  1.हम सभी बेच कर आये हैं अपने सपने
  2. इस घर का यह सूना आँगन
  3. ओ रे पन्थ-बाँकुरे
  4. खोल दिया पिंजरा
  5. दोपहर नदी स्नान
  6. लाक्षागृह
  7. इस नगरी में रात हुई
  8. दे दे इस साहसी अकेले को
  9. हिमालय की याद में एक पत्र
  10. अर्धभस्म देवदारु
  11. वसुन्धरा
  12. बीच का बसन्त
  13. एक और बसन्त
  14. अयाचित झोंका
  15. एक अर्ध-विस्मृत मित्र के नाम
  16. अँधेरे मुसाफिरखाने में
  17. जन्मे
  18. शिक्षा
  19. चमत्कार की प्रतीक्षा
  20. शुरू
  21. कुएँ में कोई गिर गया है
  22. विश्व
  23. कौन पुकारता है?
  24. और एक संगमरमर
  25. साक्षात्कार

प्रमुख

  1. साँप काटे हुए भाई से
  2. अभी नहीं
  3. सारा का सारा हेमन्त
  4. सुवर्णरेखा नदी
  5. पहाड़ियाँ, जंगल और एक आदमी
  6. एजलते
  7. हुए
  8. जंगल के पास
  9. मेरे साथ कौन आता है
  10. नी बहस के बाद
  11. अन्त में सूत्रधार का वक्तव्य
  12. कल वह, तुम, मैं
  13. पराजय के बाद
  14. अस्पताल में
  15. 21 इसी शताब्दी के सामने
  16. क्या करूँ
  17. सत की परीक्षा
  18. सूरज
  19. प्रार्थना  :  गुरु कबीरदास के लिए
  20. इलाहाबाद- आधी रात
  21. सावन की दोपहर 1
  22. सावन की दोपहर 2
  23. मौन
  24. कहाँ तक जाओगे?
  25. हिरन
  26. मुझे नहीं मालूम था
  27. शब्द का आखेट आज हमने फिर किया है।
  28. न जाने बारिश कब आयेगी
  29. बहुत दिनों के बाद
  30. प्रार्थना की एक मुद्रा
  31. एक कथा
  32. सिद्धार्थ और छन्दर
  33. वीरान सराय और घुड़सवार
  34. नीले बयाबान में
  35. मुस्करा दो प्राण मेरी कल्पना में
  36. कल्पना मेरी जगा दो
  37. पास हो तुम दूर बनकर
  38. कितने मधुमय दिन बीत गये
  39. प्रिय वह चाँदनी की रात
  40. राष्ट्र के नव जागरण स्वागत तुम्हारा
  41. मैं जवानी पूजता हूँ
  42. उषा
  43. प्रभात
  44. सन्ध्या
  45. सिन्धु की लहरें फागुन पाशों में
      ग़ज़ल-1
      ग़ज़ल-2
      ग़ज़ल-3
      ग़ज़ल-4
      ग़ज़ल-5
      ग़ज़ल-6
      ग़ज़ल-7

आलोचना

   कविता : आस्था के पच्चीस शील
   राजनीति और साहित्य
  मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति
  साहित्यकार और उसका परिवेश
  जनवादी साहित्य-1
  जनवादी साहित्य-2
  नितान्त समसामयिकता का नैतिक दायित्व-1
  नैतिक शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट
  लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस
  साहित्य क्यों
  हमारा समय
  धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि
  धर्मनिरपेक्षता की खोज में-2
  इतिहास और परम्परा
  भारतीयता क्या है?
  कवि मुहम्मद गुनी
  कबि कै बोल खरग हिरवानी
  साहित्य और साहित्यकार का दायित्व
  सलीके से क़िस्सा कहने की दुर्लभ कला : ‘अलग अलग वैतरणी’
  गोदान
  भारतीय काव्य-परम्परा में दलितों का योगदान
  राजनीति और समाज
  सामाजिक परिवर्तन की दिशाएँ और लोकतन्त्र की कसौटियाँ
  लोकतान्त्रिक समाजवाद में साहित्य की भूमिका
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