Romeo Juliet Aur Andhera

यान ओत्वेनाशेक का प्रसिद्ध उपन्यास रोमियो जूलियट और अंधेरा सन् 1958 में चैक भाषा में लिखा गया था और मात्र 6 वर्ष बाद सन् 1961 में इसका मूल चेक से हिन्दी में निर्मल वर्मा द्वारा अनुवाद प्रकाशित भी हो गया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में किशोर वय के प्रेमियों की कोमल-करुण गाया शुरू होती है, जिसमें ईसाई लड़का एक यहूदी लड़की को अपने पढ़ने की कोटरी में छिपा देता है, ताकि वह कांसन्ट्रेशन कैंप भेजे जाने से बच जाये। धीरे-धीरे कोठरी से बाहर का जीवन कोठरी के भीतर के जीवन से इतना घुल-मिल जाते हैं कि एक ही प्रश्न बचा रहता है-स्वतन्त्रता क्या है? पृथ्वी पर जीवन के मानी क्या हैं? हिन्दी साहित्य में पहले-पहल यहूदी नर-संहार की पीठिका निर्मल वर्मा के चेक अनुवादों ने ही बनायी यहाँ यह लक्षित करना आवश्यक जान पड़ता है।

यान ओत्वेनाशेक

चेकोस्लोवाकिया में जन्मे यान ओत्वेनाशेक (1924-1979) अपने देश के अग्रणी कथाकार थे। यान ओत्वेनाशेक ने अपनी समूची व्यक्ति सत्ता से उस विभीषिका और बर्बरता को जिया, दूसरे महायुद्ध के दौरान जिसने सम्पूर्ण यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया था । यान ओत्वेनाशेक की प्रस्तुति कृति के विश्व की लगभग दो दर्जन प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। हिन्दी में इसे सीधे चेक भाषा से अनूदित करने का कार्य प्रख्यात हिन्दी कथाकार निर्मल वर्मा ने किया है।
निर्मल वर्मा (1929-2005) भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चिन्तन और आस्था के बीच कोई फॉक नहीं रह जाती। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौती जीवन की कसौटी। उनके रचनाकार का सबसे महत्त्वपूर्ण दशक, साठ का दशक, चेकोस्लोवाकिया के विदेश प्रवास में बीता। अपने लेखन में उन्होंने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्धों की चीर-फाड़ की, वरन उसकी सामाजिक, राजनीतिक भूमिका क्या हो, तेज़ी से बदलते जाते हमारे आधुनिक समय में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी सामना किया। अपने जीवन काल में निर्मल वर्मा साहित्य के लगभग सभी श्रेष्ठ सम्मानों से समादृत हुए। अक्टूबर 2005 में निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए नामित थे।

प्राक्कथन

अनुवाद और निर्मल वर्मा का देश – विदेश
निर्मल वर्मा द्वारा अनूदित दो-तीन नहीं पूरी दर्जन भर पुस्तकों का एक साथ पुनः प्रकाशन हिंदी पाठकों के लिए अवश्य ही सुखद विस्मय का विषय है। सुखद इसलिए कि पिछले पचास वर्षों की अवधि में प्रकाशित ये पुस्तकें, जिनमें से कुछ अलग-अलग दुबारा छप भी चुकी थीं, कुल मिला कर दृष्टि से ओझल ही थीं और अब वे फिर से सुलभ हो रही हैं, और विस्मय यह पाकर कि निर्मल ने भला इतने अधिक अनुवाद किये थे! उनकी छवि हमेशा मौन और मितभाषी व्यक्ति की रही है और उनका अपना सर्जनात्मक लेखन, जिसमें बस पाँच मंझोली काया के उपन्यास और छह कहानी-संग्रह हैं, कलेवर की दृष्टि से शायद इन अनुवादों से उन्नीस ही पड़ेंगे। अनुवाद को दूसरे दर्जे का काम मानने की परम्परा हिन्दी में ही नहीं विश्व की सभी भाषाओं में रही है पर अनुवाद जब इस मात्रा में हों और अनुवादक जब निर्मल वर्मा जैसे गहन शब्द-साधक हों तो सहज ही प्रश्न उठेगा कि लेखन में ‘अपना’ क्या है और जिन पुस्तकों का हर-एक अक्षर पूरे मनोयोग से निर्मल ने ‘अपनी’ भाषा में लिखा है उन्हें कितना पराया माना जा सकता है।
स्पष्ट ही लेखन में अपने-पराये का यह भेद सभी अनुवादों पर समान रूप से और उन्हीं अर्थों में लागू नहीं किया जा सकता। निर्मल के अनुवाद भी इस दृष्टि से एकाधिक श्रेणियों में बाँटे जा सकते हैं। पहली श्रेणी वे है जब वे स्वयं लेखक के रूप में परिचित और प्रतिष्ठित नहीं हुए थे, वैसे वे लिखते और छपते भी तभी से थे जब वे कॉलेज में छात्र थे। इन दिनों अर्थात् पचास के दशक के इनके तीन अनुवाद हैं और तीनों ही रूसी लेखकों के, जिस बात का स्पष्ट ही अपने-आप में महत्त्व है। सेंट स्टीफ़ेन्स कॉलेज में जब वे 1947 से 1952 तक छात्र थे, उसी दौरान वे विधिवत कम्युनिस्ट पार्टी ऑव इंडिया के सदस्य बन चुके थे-वैसे ही जैसे उनके बड़े भाई रामकुमार जो उसी कॉलेज में पहले पढ़ चुके थे। (प्रसंगवश, दोनों ही भाइयों की कम-से-कम एक-एक प्रारंभिक कहानी उस कॉलेज की पत्रिका ‘द स्टिफ़ेनियन’ के हिंदी पृष्ठों में छपी मिलती है।)
अनुवाद और साम्यवाद
कहना न होगा कि उन दिनों सोवियत रूस ऐसा सूर्य था जिसके प्रभामंडल और प्रताप से आधा विश्व तो आलोकित था ही (और संतप्त भी), दुनिया के कई और भागों में असंख्य सजग लेखकों और बुद्धिजीवियों के मन में भी आशा ही नहीं बल्कि विश्वास था कि उनका देश भी उन्हीं साम्यवादी आदर्शों के अनुरूप एक समतावादी समाज का गठन करेगा। 1989-90 के बाद ज सामने आया है उसमें यह बिसर-सा गया है कि दिनों में राजनीति और विचारधारा की प्रतिबद्धता प्रबल थी। भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में इसका एक था कि जहाँ हमारा अंग्रेजी भाषी वर्ग अब भी अंग्रेजी भाष देशों का, अर्थात इंग्लैण्ड-अमेरिका का मुँह जोह रहा था, वहीं हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक और बुद्धिजीवी उस पुरानी गुलामी से छूट कर पश्चिम के भीतर ही एक नये पश्चिम का आविष्कार कर रहे थे जिसकी विचारधारा अलग थी, और जिसकी भाषाएँ और जिसका साहित्य भी अलग था। यह एक नये प्रकार की स्वतंत्रता थी जिसकी अंग्रेज़ी राज के दौरान कल्पना भी मुश्किल थी।
निर्मल वर्मा ने जिन तीन रूसी पुस्तकों के अनुवाद (अवश्य ही अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से) किये, वे थीं लियो टॉलस्टॉय (1828-1910) का बचपन (1852), अलेक्सांद्र कुप्रीन (1870-1938) का एक संग्रह कुप्रीन की कहानियाँ और अलेक्सांद्र फ़ेदयेव (1901-1956) का पहला उपन्यास पराजय (1927)। यह सभी अनुवाद 1955-56 के दौरान पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से छपे जो सोवियत और अन्य वाम-पंथी पुस्तकों का विदेशी सहायता से चलने वाला प्रमुख प्रकाशन गृह था। इन लेखकों में टॉलस्टॉय का परिचय देना अनावश्यक है। बचपन उनकी प्रारंभिक पुस्तक है जिसमें उपन्यास के झीने से आवरण में दस वर्ष की अवस्था के बाद कुछ वर्षों का उनका अपना जीवन वर्णित है। निर्मल की अनुवाद शैली का हल्का सा अनुमान इस छोटे से उदाहरण से हो सकता कि जहाँ अंग्रेज़ी में कहा गया है कि कार्ल नाम के मास्टर साहेब बच्चों को कोने में जा कर घुटनों के बल बैठ कर झुके रहने की सज़ा देते हैं, वहीं यह सज़ा हिंदी में मुर्गा बनना हो जाती है!
कुप्रीन वही लेखक हैं जिनके वेश्याओं के जीवन के बारे में लिखे उपन्यास यामा : द पिट को पढ़ कर प्रेमचंद 1933 में (जैनेन्द्र के अनुसार) सर्वथा अभिभूत और अश्रु-विगलित हो गये थे, और सजीव व सहृदय चरित्र-चित्रण वाला जिनका एक और उपन्यास गाड़ी वालों का कटरा नाम से बाद में सरस्वती प्रेस से छपा था। निर्मल द्वारा अनूदित संग्रह में शुरू में तो कुप्रीन की 100-125 पृष्ठों वाली दो उपन्यासिकाएँ हैं, मोलोच (अर्थात मोलोकर, 1896) और ओलेस्या (1898), फिर छह और कहानियाँ, और अंत में लगभग 60-65 पृष्ठों की एक लम्बी प्रेम कहानी। इस पुस्तक में निर्मल को कई पद्यांशों का भी अनुवाद करना पड़ा जैसे कि ये पंक्तियाँ जो छायावादी शैली का सफल अनुकरण लगती हैं :
ताता थैया की तालों पर
नृत्य और उन्माद वहाँ था
सुमुखि, सलोने मुख पर
तेरे डर का घना विषाद वहाँ था ।
टॉलस्टॉय और कुप्रीन दोनों ही से काफी छोटे फ़ेदयेव कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य ही नहीं, अपितु स्टालिन के परम भक्त थे और पार्टी के बड़े पदाधिकारी; वे ‘यूनियन ऑफ़ सोवियत राइटर्स’ के संस्थापकों में से थे और 1946 से 1954 तक उसके अध्यक्ष, पर स्टालिन के मरने के बाद यह पद उनसे छिन गया, उन्होंने शराब की शरण ली और फिर जल्दी ही आत्महत्या कर ली। उनका उपन्यास पराजय सचमुच ही कम्युनिस्ट उपन्यास है क्योंकि इसमें 19 लोगों की ऐसी गुरिल्ला टोली की शौर्य गाथा है जो एक साथ साम्यवाद के दो-दो तरह के शत्रुओं से साइबीरिया में लोहा लेती है।
निर्मल ने एक और कम्युनिस्ट लेखक का अंग्रेज़ी से ही अनुवाद किया, जो छपा कुछ साल बाद 1966 में, लेकिन जो इन्हीं रूसी उपन्यासों के अनुवादों के साथ जुड़ता है। ये थे रोमानिया के उपन्यासकार मिहाइल सादौवेन्यू (1880-1961) जो अपने देश में कम्युनिस्ट पार्टी के चहेते थे, बड़े-बड़े पार्टी पदों पर रहे थे, और उस ‘पीपुल्स कमिटी’ के उपाध्यक्ष थे जिसके बाद में स्वयं चाऊशेस्कू आजीवन अध्यक्ष रहे (अर्थात 1989 में तख्ता पलटने और मारे जाने तक)। उनकी जिस रचना का निर्मल ने अनुवाद किया वह 1964 में ही अंग्रेज़ी में आई थी। झोंपड़ी वाले और अन्य कहानियाँ में पहली कहानी फिर उपन्यासिका जैसी लम्बी है और तीन कहानियाँ और हैं जो एक ही सराय में गड़ेरियों और खेतिहर मज़दूरों द्वारा सीधी-सादी पर काव्यात्मक शैली में कही जाती हैं।
इन अनुवादों को करने में निर्मल का आदर्शवाद कितना आगे था और उनकी निजी आर्थिक आवश्यकता कितनी, यह तय करना अब मुश्किल है। अनुवाद-कार्य लेखकों और पत्रकारों के लिए जीविकोपार्जन का भी एक साधन रहा है और हिन्दी में ऐसे अनुवादों के 1996 की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। निर्मल ने कुप्रीन वाली ‘पुस्तक में पुनःप्रकाशन पर एक छोटी-सी भूमिका में इस परिस्थिति की जैसी स्पष्ट स्वीकारोक्ति की है, वैसी कम हिन्दी अनुवादकों ने की होगी। 1952-53 के ‘बेरोज़गारी के दिनों में’ अनुवाद के बहाने किसी और ही दुनिया में ‘घुमक्कड़ी’ करने का वह अनुभव उन्हें भूला नहीं था : पहली बार मुझे लगा कि अनुवाद का काम न केवल कुछ हद तक किसी लेखक के आरंभिक वर्षों में उसकी आर्थिक कठिनाई हल कर देता है बल्कि ‘मनोवैज्ञानिक थेरेपी’ की तरह उसके संताप और अकेलेपन को भी दूर करता है। अस्तु, निर्मल वर्मा अब तक बस बेरोज़गार ही थे और अनुवादक ही। उनके जीवन का अगला चरण 1959 में शुरू होता है, जब सृजनात्मक लेखन का विधिवत प्रारंभ उनकी पहली पुस्तक परिंदे (कहानी-संग्रह) के प्रकाशन से हुआ पर उनके लिए अनुवाद का महत्त्व घटा नहीं अपितु अधिक ही हुआ, और अनुवाद-कार्य ने उनके लिए ऐसे नये दरवाज़े खोले जिनकी हिन्दी साहित्य में तब तक मिसाल नहीं थी।
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