Mud-Mudke Dekhta Hoon

मुड़-मुड़के देखता हूँ राजेन्द्र यादव का आत्मकथ्य है। इसमें उन्होंने अपने जीवन के ऐसे मोड़ों का क्रि किया है जिनकी उनके लिए खास अहमियत रही, और जो उनको लगे, कि किसी और के लिए भी रुचिकर होंगे। उनका मानना था कि आत्मकथा लिखना एक तरह से अपनी जीवन-यात्रा के लिए ‘जस्टीफिकेशन’ या वैधता की तलाश होती है, और उनमें ‘तथ्यों को काट-छाँटकर अनुकूल बनाने की कोशिशें छिपाए नहीं छिपतीं।’ इसीलिए यह पुस्तक आत्मकथा की शैली में लिखी गई आत्मकथा नहीं, लेकिन उनके जीवन का पूरा खाका इसमें ज़रूर स्पष्ट हो जाता है। साथ ही, इसमें वे मूल्य, मान्यताएँ और ख़ूबियाँ कमजोरियाँ
भी प्रकट हो जाती हैं, जिनका निर्वाह उन्होंने सदैव निडर होकर किया।
यह उनका साहस ही है कि अपने अन्तर्विरोधों, अपनी कुंठाओं को भी उन्होंने छिपाया नहीं, और न ही अपने रिश्तों को अलग-अलग शीर्षकों के तहत अलग- अलग समय लिखे आलेखों में फैले इस विस्तृत आत्मकथ्य में उन्होंने अपने लेखक और व्यक्ति को ऐसी निर्ममता से देखा है, जो उन्हीं के लिए संभव थी।
पुस्तक में संकलित अर्चना वर्मा का ‘तोते की जान’ शीर्षक लम्बा लेख इस आत्म-वृत्त को भी पूरा करता है; और राजेन्द्र यादव को जानने की प्रक्रिया को भी जिनके बारे में साहित्य का हर पाठक जानना चाहता है।
और क्या यह सारी ज़िन्दगी यों ही व्यर्थ गई? यह मेरी व्यक्तिगत अर्थहीनता है या एक विशेष समय में होने की नियति जहाँ कुछ भी सार्थक नहीं रह गया है? मुझे अक्सर चेखव के नाटक ‘तीन बहनें’ की याद आती है। इस व्यर्थता-बोध की मारी इरीनी अवसाद के क्षणों में कहती है, “काश, जो कुछ हमने जिया है, वह सिर्फ जिन्दगी का रफ-ड्राफ्ट होता और इसे फ्रेयर करने का एक अवसर हमें और मिलता! ” सुनते हैं इस पर एक जर्मन या फ्रेंच नाटककार ने एक नाटक लिखा है। इसी वाक्य से प्रेरित एक साहब इस ‘रफ़ ड्राफ्ट’ को फ़ेयर करने बैठे हैं और जिन्दगी की एक-एक निर्णायक घटना को उठाकर जाँच-परख रहे हैं कि अगर फिर से वह क्षण आए तो वे क्या करेंगे?… मित्रो, प्रेमिका या जीवन के एक विशेष ढर्रे से लेकर हर जगह वे पाते हैं। कि उस समय जो निर्णय उन्होंने लिये हैं; सिर्फ वही लिये जा सकते थे। जो कुछ उन्होंने किया, उसके सिवा वे और कुछ कर ही नहीं सकते थे। रफ़ हो या फ़ेयर, उनकी ज़िन्दगी वही होती, जो है
राजेन्द्र यादव का जन्म 28 अगस्त, 1929 को आगरा में हुआ। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) किया। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं-देवताओं की मूर्तिया, खेल-खिलौने, जहाँ लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक
टूटना, ढोल और अपने पार, चौखटे तोड़ते त्रिकोण, वहाँ तक पहुँचने की दौड़, अनदेखे अनजाने पुल, हासिल और अन्य कहानियाँ, श्रेष्ठ कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियाँ (कहानी-संग्रह); सारा आकाश, उखड़े हुए लोग, शह और मात, एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ), मंत्र-विद्ध और कुलटा (उपन्यास); आवाज तेरी है (कविता-संग्रह); कहानी : स्वरूप और संवेदना, प्रेमचन्द की विरासत, अठारह उपन्यास, काँटे की बात (बारह खंड), कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति, उपन्यास : स्वरूप और संवेदना (समीक्षा- निबन्ध – विमर्श); वे देवता नहीं हैं, एक दुनिया : समानान्तर, कथा जगत की बाग़ी मुस्लिम औरतें, वक़्त है एक ब्रेक का, औरत : उत्तरकथा, पितृसत्ता के नए रूप, पच्चीस बरस : पच्चीस कहानियाँ, मुबारक पहला क़दम (सम्पादन); औरों के बहाने (व्यक्ति-चित्र); मुड़-मुड़के देखता हूँ… (आत्मकथा); राजेन्द्र यादव रचनावली (15 खंड)। अगस्त, 1986 से 27 अक्टूबर, 2013 तक प्रेमचन्द द्वारा स्थापित कथा-मासिक हंस का सम्पादन । चेखव, तुर्गनेव, कामू आदि लेखकों की कई कालजयी कृतियों का अनुवाद । 28 अक्टूबर, 2013 को उनका निधन हुआ।
मायरा और माही को
पता नहीं बीस साल बाद
वे अपने नाना के इस लेखन
और भाषा को समझ पायेंगी भी या नहीं

मुड़-मुड़के देखता हूँ

काबे को जा रहा हूँ, निगह सूए दैर है….
मुड़-मुड़के देखता हूँ, कोई देखता न हो…
पता नहीं यह किसका शेर है। लगभग पचास सालों से मेरे साथ है। मैंने इसका इस्तेमाल उखड़े हुए लोग में सूरजजी के मुँह से कराया है। उपन्यास 1952-53 में लिखा गया था, प्रेत बोलते हैं (सारा आकाश) लिखने के बाद। आज मुड़कर देखता हूँ तो यही समय है जब सिर्फ लेखक बनने की यात्रा बाकायदा शुरू हुई थी। साथ चलने शुरू हो गए थे मन्दिरों के कुछ शिखर। वे आज भी छूटे हुए क्षितिजों के पार आत्मा में झिलमिलाते हैं। शायद भविष्य की ओर खींचते हुए।
यह मेरी आत्मकथा नहीं है। इन ‘अन्तर्दर्शनों’ को मैं ज्यादा-से-ज्यादा लिखते हैं जो स्मृति ‘आत्मकथ्यांश’ का नाम दे सकता हूँ। आत्मकथा के सहारे गुज़रे हुए को तरतीब दे सकते हैं। लम्बे समय तक अतीत में बने रहना उन्हें अच्छा लगता है। लिखने का वर्तमान क्षण, वहाँ तक आ पहुँचने की यात्रा ही नहीं होता, कहीं-न-कहीं उस यात्रा के लिए ‘जस्टीफिकेशन’ या वैधता की तलाश भी होती है-मानो कोई वकील केस तैयार कर रहा हो। लाख न चाहने पर भी वहाँ तथ्यों को काट-छाँटकर अनुकूल बनाने की कोशिशें छिपाए नहीं छिपतीं: देख लीजिए, मैं आज जहाँ हूँ वहाँ किन-किन घाटियों से होकर आया हूँ। घाटियों और शिखरों के चुनाव पीछे ‘आज जो मैं हूँ’ का तर्क होता है। दूसरे शब्दों में इसे एक ‘गढ़न्त’ कह सकते हैं। आत्मकथा व्यक्ति की हो या संस्कृति की- दोनों इस गढ़न्त से मुक्त नहीं हैं। वे स्वतन्त्र कथा-रचनाएँ (फिक्शन) हैं। वास्तविक नाम और स्थान कथा को विश्वसनीय बनाने की रचनात्मक तरकीबें (डिवाइस) होती हैं। कथा के प्रवाह में ध्यान न बटाएँ इसलिए कहानी और उपन्यासों में हम वास्तविक नामों, स्थानों को बदल देते हैं। वहाँ मुख्य तर्क कहानी है, आत्मकथा में मुख्य तर्क व्यक्ति है। दोनों जगह विश्वसनीयता का संकट स्थितियों-घटनाओं के चुनाव में कतरब्योंत करता है।
बहरहाल, व्यक्ति और संस्कृति दोनों अपने अतीत में चूँकि गढ़न्त हैं। इसलिए वहाँ कथा (फिक्शन) के सारे तत्त्व सक्रिय होते हैं-चाहे व्यक्ति अत्यन्त विनम्र और शालीन होकर लिखे या संस्कृति सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार ओढ़कर। संस्कृति की आत्मकथा के सन्दर्भ में वर्तमान का पतन ‘अतीत के श्रेष्ठ’ का आविष्कर्ता है। उपलब्धियों का प्रदर्शन या अपने से बाहर उनके लिए समर्थन बटोरना आत्मविश्वासहीनता से प्रेरित होता है।
अतीत मेरे लिए कभी भी पलायन, प्रस्थान की शरणस्थली नहीं रहा। वे दिन कितने सुन्दर थे… काश, वही अतीत हमारा भविष्य भी होता—की आकांक्षा व्यक्ति को स्मृति-जीवी निठल्ला और राष्ट्र को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी बनाती है। जो हर अनुभव, हर सुख और हर गौरव को जी चुका होता है, वही वस्तुतः बूढ़ा होता है। भविष्य का स्वप्न न हो तो न व्यक्ति कुछ करे, न समाज गतिशील होने की बात सोचे….
ज़ाहिर है इन स्मृति-खंडों में मैंने अतीत के उन्हीं अंशों को चुना है जो मुझे गतिशील बनाए रहे हैं। जो छूट गया है वह शायद याद रखने लायक नहीं था, न मेरे, न औरों के… कभी-कभी कुछ पीढ़ियाँ अगलों के लिए खाद बनती है। बीसवीं सदी के ‘उत्पादन’ हम सब ‘खूबसूरत पैकिंग’ में शायद वही खाद हैं। यह हताशा नहीं, अपने ‘सही उपयोग’ का विश्वास है, भविष्य की फ़सल के लिए…बुद्ध के अनुसार ये वे नावें हैं जिनके सहारे मैंने ज़िन्दगी की कुछ नदियाँ पार की हैं और सिर पर लादे फिरने की बजाय उन्हें वहीं छोड़ दिया है। अज्ञेय के शब्दों में कितनी नावों में कितनी बार की सिर्फ कुछ झलकें ही आपके सामने हैं। हाँ, इस पुस्तक में संकलित रचनाएं विभिन्न समयों पर लिखी गई थीं, इसलिए कुछ प्रसंगों का ज़िक्र अनेक जगहों पर आ गया है… वीना उनियाल की व्यक्तिगत दिलचस्पी और परिश्रम के चलते ही यह पुस्तक सम्भव हो पा रही है।
-राजेन्द्र यादव
10.8.2001

भूमिका

मुझे याद कुछ नहीं रहता। सिर्फ कुछ आधी-अधूरी तस्वीरें होती हैं जो लहरों की तरह झलकती-कौंधती हैं और फिर कहीं गायब हो जाती हैं। ये तस्वीरें उस समय से शुरू होती है जब मैं दो-तीन बरस का था। लाल ईंटों से बने बरामदे का एक खम्भा है। उसके पास ही दूध-भरा भगोना है और एक छोटा सा लड़का उसमें पेशाब कर रहा है। कुत्ता बैठा है और लड़का उस पर सवारी की कोशिश कर रहा है। सम्पन्न भार्गव परिवार के लोग ‘कोठीवाले’ कहलाते हैं, उनका बड़ा सा हाथी आता है। सारे बच्चों को उस पर बैठाकर सैर को ले जाया जाता है। खेतों के बीच रहट में बैल जुते हैं और डंडे पर बैठा आदमी गोद में बच्चा सँभाले गोल-गोल घूम रहा है। बड़ी लड़की, लड़के के बालों की चोटियाँ बना रही है….तय कर पाना मुश्किल है कि ये या इस तरह की तस्वीरोंवाली स्थितियाँ सचमुच मेरे साथ गुज़री हैं, या दूसरों ने लगातार सुना-सुनाकर मन में इस तरह बैठा दी हैं कि मुझे ये अपनी ही स्मृतियाँ लगती हैं। मुझे यह कन्फ्यूजन आज तक है। न जाने कितने सपने, डर, यादें, जो मेरी चेतना का हिस्सा हैं, पता नहीं वे मेरी ही हैं या मैंने उन्हें दूसरों से सुनकर या किताबों से पढ़कर अपना बना लिया है। पहले तो अपनी या दूसरों की तस्वीरों को छाँट सकना ही मुश्किल है। फिर अगर छँटाई शुरू करूँ तो शायद पाऊँ कि अपना कुछ है ही नहीं। सभी कुछ तो दूसरों या अपनों का दिया हुआ है-स्मृतियाँ, घटनाएँ, विचार, दर्शन, सोच… आत्मकथा का एक अर्थ अगर समझ का विकास है तो यह तय करना शायद सबसे मुश्किल है कि यह दूसरों के दिए हुए को अपना मानकर सँभाल-सँजोकर बचाए रखना है या उसे छाँट-फटककर सिर्फ अपने की तलाश करना…सब कुछ गड़बड़ है या समय के साथ इतना कुछ घट-बढ़ गया है कि आज की दृष्टि ही उन्हें बना बिगाड़ रही है।
अब उस कुत्ते को ही लें, जिस पर चढ़कर सवारी की कोशिश करता बच्चा एक तस्वीर की तरह मेरे मन में है। माथे पर सफेद तिलकवाले उस काले कुत्ते का नाम था ‘टीपू’। अच्छी नस्ल का था। टीपू का बैठना, मुँह खोलकर लार टपकाती जीभ का भीतर-बाहर आना पहले मेरे लिए कौतुक और कौतूहल की चीज़ था। फिर वह टीपू मेरे दिन-रात का साथी मित्र हो गया। धीरे-धीरे बड़ा भाई और संरक्षक बना। बाहर जाता तो चौकीदार की तरह आस-पास बना रहता। गेंद उठा लाता और चिड़ियों के पीछे भागता। कहने पर उठता बैठता। बाद में जब दिलचस्पियाँ बॅट गईं तो टीपू परिवार की सिर्फ उपस्थिति के रूप में रह गया। जिसके खाने-पीने के समय थे और उसे बाहर के सड़क-छाप कुत्तों के हमलों या संगति से बचाकर अपने लिए बनाए रखना था। वह हमारी चौकसी और हैसियत दोनों था। फिर वह नहीं रहा। हम उसकी लाश के पास बैठकर रोए । हफ़्तों उसकी बातों और गुणों का बखान करते सुनाते रहे। बाद में ध्यान आया कि उसका नाम टीपू क्यों था? टीपू सुल्तान तो हमारे इतिहास का ऐसा नायक रहा है जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। उसी नफ़रत में अंग्रेजों ने कुत्तों के नाम टीपू रखने शुरू किए। वह उपनिवेशवादी हिकारत थी जिसे हमने अपना सहज गौरव बना लिया था। हम साहबों की मानसिकता जी रहे थे। हम सब ऐसे टीपू हैं, जिन्हें कुत्ता बना दिया गया था ताकि सेवा और वफादारी को एकमात्र गुण के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सके। देखते-देखते टीपू हमारी चेतना में पराजित नायक के रूप में उभरने लगा। कुत्ता वह नहीं, कुत्ते हम थे। यही नहीं, वह धीरे-धीरे समाज के उन वर्गों और वर्णों के साथ जा मिला, जिन्हें हज़ारों सालों से कुत्ता बनाकर रखा था- -अपनी सेवा-सुरक्षा के लिए अनिवार्य, लेकिन उनकी अशुद्धता से दूरी बनाए रखते हुए दूसरों की दी हुई स्मृतियों को छीलकर अपने वास्तविक की इसी तलाश का दूसरा नाम आत्मकथा भी हो सकता है…इन्हीं तस्वीरों से गुज़रते हुए मैं शायद अपने आपको ‘देख’ सकता हूँ।
-राजेन्द्र यादव
    क्रम की तलाश
    मुड़-मुड़ के देखता हूँ
    भूमिका
    हक़ीर कहो फ़क़ीर कहो
    जो दुर्घटनाओं में भी बचा रहता है अर्थात् संकल्प
    ऐयार (इम्पोस्टर) से सावधान  !
   अपनी निगाह से
   मुड़-मुड़के देखता हूँ
   यह तुम्हारा स्वर मुझे खींचे लिये जाता
   हम न मरैं मरिहै संसारा
   तोते की जान अर्चना वर्मा
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