आर्य द्रविड़ भाषाओं का अंत: संबंध

वर्तमान मान्यता यह है कि आर्य और द्रविड़ भाषाएँ दो भिन्न भाषा-परिवारों से संबंधित हैं जिनमें किसी प्रकार का बुनियादी संबंध नहीं है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध में इस मान्यता का खंडन करते हुए यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया गया है कि आर्य तथा भारोपीय भाषाएँ ठीक उसी स्रोत या भाषिक स्तर से उत्पन्न हुई हैं जिससे द्रविड़ भाषाएँ और तमिल इन समस्त भाषाओं की तुलना में उस स्तर के सर्वाधिक निकट है। अतः भारोपीय भाषा-क्षेत्र में भी कोई भी तुलनात्मक अध्ययन तब तक निभ्रत नहीं हो सकता जब तक वह तमिल से अपेक्षित मार्गदर्शन लेता हुआ नहीं चलता है। साथ ही यह भी कि उत्तर भारतीय बोलियों में वह आदिम भाषिक स्तर संस्कृत और वैदिक की तुलना में भी कुछ अर्थों में अधिक शुद्ध रूप में बना रह गया है, और तमिल तथा उत्तर भारतीय बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन से उस भाषिक स्तर की आंशिक पुनर्सर्जना अधिक सफलता के साथ की जा सकती है।
यह स्थापना कुछ वर्ष पूर्व तक स्वयं इस लेखक को भी चौंका सकती थी और पहली बार इसे सुनकर यदि कोई व्यक्ति चौंकता है तो इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। 
 
पर प्रस्तुत कृति का गंभीरता से अध्ययन करने के बाद इतना तो स्पष्ट हो ही जाएगा कि लेखक का उद्देश्य कुतूहल उत्पन्न करना नहीं रहा है। वह स्वयं एक अत्यंत उलझी हुई समस्या को, जिसे परस्पर विरोधी दावों ने अधिक विडंबनापूर्ण बना दिया है, समझने और इसका कोई अधिक बुद्धिग्राह्य समाधान ढूँढ़ने के लिए प्रयत्नशील रहा और प्रस्तुत प्रबंध उसी की देन है। प्रयोगों और भटकावों के एक लंबे क्रम के बाद वह जिस निष्कर्ष पर पहुँचा वह यह कि इस समस्या पर अब तक जिस सिरे से विचार किया जाता रहा है वही गलत रहा है और इसकी पुष्टि के लिए जो तर्क-प्रणाली अपनाई गई है वह स्वयं भी दोषपूर्ण है।

लेखक परिचय

भगवान सिंह का जन्म, 1 जुलाई 1931, गोरखपुर जनपद के एक मध्यवित्त किसान परिवार में। गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी)। आरंभिक लेखन सर्जनात्मक कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना । 1968 में भारत की सभी भाषाओं को सीखने के क्रम में भाषाविज्ञान और इतिहास की प्रचलित मान्यताओं से अनमेल सामग्री का प्रभावशाली मात्रा में पता चलने पर इसकी छानबीन के लिए स्थान नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, अंशतः प्रकाशित, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, (1973); पुनः इसकी गहरी पड़ताल के लिए शोध का परिणाम आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता लिपि प्रकाशन, नई दिल्ली, (1973)। इसके बाद मुख्य रुचि भाषा और इतिहास के क्षेत्र में अनुसंधान में और सर्जनात्मक लेखन प्रासंगिक हो गया। इसके बाद के शोधग्रंथों में : हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, दो खंडों में, (1987) राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली; दि वेदिक हड़प्पन्स, (1995), आदित्य प्रकाशन, एफ 14/65, मॉडल टाउन द्वितीय, दिल्ली-110009; भारत तब से अब तक (1996) शब्दकार प्रकाशन, अंगद नगर, दिल्ली-92, (संप्रति) किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली; भारतीय सभ्यता की निर्मिति (2004) इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद; प्राचीन भारत के इतिहासकार, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, (2011); भारतीय परंपरा की खोज, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, (2011); कोसंबी : मिथक और यथार्थ, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली, (2011); भाषा और इतिहास, (प्रकाश्य)। संप्रति ऋग्वेद का सांस्कृतिक दाय पर काम कर रहे हैं।

प्रकाशकीय

पश्चिमवाद के अंध-समर्थक विद्वानों में यह धारणा रही है कि आर्य और द्रविड़ भाषाएँ दो भिन्न भाषा परिवारों से संबंधित रही हैं। ऐसी स्थिति के कारण इन दो भाषाओं में कोई भी भीतरी रिश्ता खोजना व्यर्थ का प्रयास है। इस अलगाववादी, भेदभाववादी, आपस में मनमुटाव को बढ़ावा देनेवाली आर्य-द्रविड़ अवधारणा ने इस देश की भाषा-संस्कृति में एक लंबे समय से एक जहरीला परिवेश निर्मित किया है। प्रायः यह बताया जाता रहा है कि आर्यों ने द्रविड़ों से युद्ध किया। उन्हें लूटने-पीटने के बाद दक्षिण में खदेड़ दिया। इस भ्रामक थियरी ने अपार घृणा के बीज भाव पैदा किए। हमने काफी समय के बाद शोध एवं चिंतन से यह जान पाया कि औपनिवेशिक गुलामी तथा औपनिवेशिक आधुनिकता ने यह काम किया है। इस आर्य- अनार्य, आर्य-द्रविड़ संघर्ष के सिद्धांत को ध्वस्त करते हुए भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण के नायक रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘भारतवर्ष में इतिहास की धारा’ नामक अपने शोध निबंध में लिखा कि ‘किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया। वास्तव में प्राचीन द्रविड़ लोग सभ्यता की दृष्टि से हीन नहीं थे। उनके सहयोग से हिंदू-सभ्यता को रूप-वैचित्र्य और रस-गांभीर्य मिला। द्रविड़ तत्त्वज्ञानी नहीं थे, पर उनके पास कल्पना- शक्ति थी, वे संगीत और वास्तुकला में कुशल थे। सभी कला-विधाओं में वे निपुण थे। उनके गणेश देवता की वधू कला वधू थी। आर्य-द्रविड़ मिलन से एक विचित्र सामग्री का निर्माण हुआ जिसमें विरोधों के सामंजस्य की अद्भुत शक्ति थी।’
दरअसल अपने व्यापक अध्ययन चिंतन से भगवान सिंह ने यह थियरी प्रस्तुत की है कि किसी एक मूल भाषा से ही आर्य एवं द्रविड़ दोनों परिवारों का विकास हुआ। बड़ी बात यह कि उन्होंने अपने विवेचन के पाठ-विमर्श में भाषा-परिवार की अवधारणा का ही खंडन किया। साथ ही यह विचार भी प्रस्तुत किया कि जिस तरह की एकता या समस्रोतीयता की बात आर्य- द्रविड़ भाषाओं के संदर्भ में की गई है-वह इन दो भाषा समुदायों में गिनी जानेवाली भाषाओं तक सीमित नहीं है। यह बात भारत की सभी भाषाओं
पर लागू होती है। मुझे इस पुस्तक के व्यापक अध्ययन निष्कर्षों से यह विश्वास है कि यह हमारे पाठकों की भाषा समझ के साथ इतिहास की समझ को भी एक नवीन दृष्टि प्रदान करेगी जो तुलनात्मक भाषा विज्ञान का अपना क्षेत्र रहा है। हमारा पाठक इस पुस्तक का हृदय से अवश्य स्वागत करेगा।
कृष्णदत्त पालीवाल
सचिव

आमुख

जिस तरह व्यक्तियों का भाग्य कई भौतिक कारणों और कार्यों का परिणाम होता है। जिनमें हम स्वयं भी शामिल रहते हैं फिर भी जिनके प्रभावों का हमें पूरा पता तक नहीं होता, उसी तरह पुस्तकों, संस्थाओं और व्यवस्थाओं का भी भाग्य होता है। मेरे अपने जीवन और मेरी कतिपय पुस्तकों के साथ ऐसा ही रहा है। उसी का परिणाम है कि जहाँ इस पुस्तक का प्रकाशन एक अन्य प्रतिष्ठान से होना था, वहाँ इसे सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित कराने का निर्णय लेना पड़ा।
इसका प्रथम प्रकाशन 1973 में लिपि ने किया था। तब इसे आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता शीर्षक दिया था। पुस्तक पर पाठकों की अच्छी प्रतिक्रियाएँ मिली थीं। पूना विश्वविद्यालय में इसे भाषाविज्ञान के संदर्भ ग्रंथों में रखा गया था। इसकी बिक्री भी संतोषजनक थी। फिर भी मैंने इसका पुनर्मुद्रण न होने दिया। इसके दो कारण थे। मुझे इसके शीर्षक को ले कर असंतोष था। नाम से यह भ्रम होता था कि मैंने किसी एक मूल भाषा से आर्य और द्रविड़ दोनों परिवारों का विकास दिखाया है, जब कि विवेचन में भाषा-परिवार की अवधारणा का ही खंडन किया गया था। दूसरे इस बीच मैं इस नतीजे पर पहुँचा था कि जिस तरह की एकता या समनोतीयता की बात उसमें तथाकथित आर्य और द्रविड़ भाषाओं के संदर्भ में की गई थी वह इन दो भाषा समुदायों में गिनी जानेवाली भाषाओं तक सीमित नहीं है। यही बात भारत की लगभग सभी भाषाओं पर लागू होती है।
इसे आधिकारिक रूप में इस दृष्टि से लिखने के लिए जिस तैयारी की अपेक्षा थी उसमें लगा तो रहा परंतु विविध व्यस्तताओं के कारण मुंडा भाषाओं का उस स्तर का भी ज्ञान अर्जित न कर सका जो द्रविड़ भाषाओं का अर्जित कर सका था। इसके अतिरिक्त मुंडा और नाग भाषाओं को लेकर उस तरह के गहन अध्ययन भी नहीं हुए हैं जो द्रविड़ के मामले में काल्डवेल और उनके पूर्ववर्तियों से ले कर कृष्णमूर्ति तक किए गए हैं। उसके कोशों और प्राथमिक व्याकरणों की भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे इसको इष्ट रूप में न तो सुधारने का अवसर मिला न ही मैं इसको पहले रूप में प्रकाशित करने को किसी प्रकाशक को दे सका।
प्रस्तुत संस्करण में काफी कुछ बदला गया है, यहाँ तक कि पुस्तक का नाम तक, परंतु उस भाषा-परिवेश और उस अंतर्क्रिया का सांकेतिक उल्लेख और प्रमाण देने से अधिक कुछ करना संभव न हो सका। वह इस पुस्तक के कलेवर के भी अनुरूप न था, क्योंकि इसे व्यवस्थित शोध प्रबंध के अनुसार नहीं लिखा गया था अपितु इन भाषाओं के संबंध को ले कर जो समस्याएँ अधिक गंभीर प्रतीत हो रही थीं, उनको रेखांकित करने के लिए निबंधों के रूप में लिखा गया था। भारतीय भाषाओं के अंतरावलंबन के भी कतिपय पहलुओं का, जिनकी ओर किसी अन्य अध्येता का ध्यान नहीं गया था, विवेचन अपेक्षित था। परंतु उसे भी इसमें समेटना संभव न हो पाया।
इसके बाद भी इस पुस्तक में कुछ परिवर्तन किए गए है और शेष को अगली पुस्तकों के लिए स्थगित रखा गया है। इस पुस्तक का महत्व इस बात में है कि इसमें ही मुझे कुछ ऐसी स्थापनाएँ दी थीं जिनका साक्षात्कार हुए बिना मैं आगे का कोई काम करने की सोच तक नहीं सकता था। उनके कारण मैं अपने लेखों और प्रकाशनों में प्रायः इसके हवाले देता रहा और अपनी प्रकाशित कृतियों की तालिका में भी इसका उल्लेख करता रहा। पुस्तक अलभ्य होने के कारण पाठकों और शोधछात्रों के आग्रह पर कई बार इसकी प्रतिलिपियाँ करा कर उन्हें भेजना पड़ता रहा। एक भिन्न सोच और दृष्टि से काम करने वाला अकेला व्यक्ति गलतियाँ करने से बच नहीं सकता परंतु उन गलतियों को स्वयं भाँप भी नहीं सकता। अपनी सीमाओं के बाद भी विश्वास करता हूँ कि यह भाषा की समझ के साथ ही इतिहास की समझ को भी प्रखर बनाएगी जो ही तुलनात्मक भाषाविज्ञान का अपना क्षेत्र रहा है और जिसके कारण तुलनात्मक के साथ ऐतिहासिक विशेषण भी जोड़ना पड़ता है।
3 अप्रैल 2012
भगवान सिंह

प्रथम संस्करण का आमुख

वर्तमान मान्यता यह है कि आर्य और द्रविड़ भाषाएँ दो भिन्न भाषा-परिवारों से संबंधित हैं जिनमें किसी प्रकार का बुनियादी संबंध नहीं है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध में इस मान्यता का खंडन करते हुए यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया गया है कि आर्य तथा भारोपीय भाषाएँ ठीक उसी स्रोत या भाषिक स्तर से उत्पन्न हुई हैं जिससे द्रविड़ भाषाएँ और तमिल इन समस्त भाषाओं की तुलना में उस स्तर के सर्वाधिक निकट है। अतः भारोपीय भाषा-क्षेत्र में भी कोई भी तुलनात्मक अध्ययन तब तक निर्भ्रात नहीं हो सकता जब तक वह तमिल से अपेक्षित मार्गदर्शन लेता हुआ नहीं चलता है। साथ ही यह भी कि उत्तर भारतीय बोलियों में वह आदिम भाषिक स्तर संस्कृत और वैदिक की तुलना में भी कुछ अर्थों में अधिक शुद्ध रूप में बना रह गया है, और तमिल तथा उत्तर भारतीय बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन से उस भाषिक स्तर की आंशिक पुनर्सर्जना अधिक सफलता के साथ की जा सकती है।
यह स्थापना कुछ वर्ष पूर्व तक स्वयं इस लेखक को भी चौंका सकती थी और पहली बार इसे सुनकर यदि कोई व्यक्ति चौंकता है तो इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। पर प्रस्तुत कृति का गंभीरता से अध्ययन करने के बाद इतना तो स्पष्ट हो ही जाएगा कि लेखक का उद्देश्य कुतूहल उत्पन्न करना नहीं रहा है। वह स्वयं एक अत्यंत उलझी हुई समस्या को, जिसे परस्पर विरोधी दावों ने अधिक विडंबनापूर्ण बना दिया है, समझने और इसका कोई अधिक बुद्धिग्राह्य समाधान ढूँढ़ने के लिए प्रयत्नशील रहा और प्रस्तुत प्रबंध उसी की देन है। प्रयोगों और भटकावों के एक लंबे क्रम के बाद वह जिस निष्कर्ष पर पहुँचा वह यह कि इस समस्या पर अब तक जिस सिरे से विचार किया जाता रहा है वही गलत रहा है और इसकी पुष्टि के लिए जो तर्क-प्रणाली अपनाई गई है वह स्वयं भी दोषपूर्ण है।
यह दृष्टि-दोष क्यों आया, आर्य और द्रविड़ भाषाओं की आंतरिक संगति को इससे पूर्व क्यों लक्ष्य नहीं किया गया और यदि किया भी गया तो उसको चालू ढंग से क्यों निबटा दिया गया, इसकी छानबीन का ही परिणाम है ‘प्राच्यविद्या की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि’। इसका लक्ष्य इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रकांड अपितु उनकी उन सीमाओं को पहचानना मात्र है, जो इन क्षेत्रों में हुई भ्रांतियों के लिए उत्तरदायी रही हैं। यदि प्रस्तुतीकरण में कहीं अन्यथा आभास आए तो उसे भाषा और तर्क-श्रृंखला के तकाजे से उत्पन्न माना जाए। इन धुरीण विद्वानों की अवज्ञा करने का साहस लेखक नहीं कर सकता जिनकी स्वयं की निष्पत्तियों का सहारा लेते हुए ही उसने अपनी चिंता-सरणी स्थिर की है।
इस प्रबंध में एक ऐसी विवादास्पद स्थापना दी जानी थी जिसमें आधारभूत शोध-कार्य का नितांत अभाव था और ऐसे शोध-कार्यों के अभाव में अधिकांश निष्पत्तियाँ सरलीकरणों में बदल सकती थीं, जिन्हें सुधी-जन अनेक दृष्टियों से आपत्तिजनक मान सकते थे। अतः कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर गहराई से विचार करना भी अपेक्षित था। इसके परिणामस्वरूप यह प्रबंध एक सुसंबद्ध कृति के स्थान पर एक ही समस्या से संबंधित, परंतु स्वतंत्र निबंधों का संग्रह प्रतीत होता है, पर किसी ऐसी प्राथमिक कृति की यह अपरिहार्य विवशता थी। ‘आद्य भारोपीय की पुनर्सर्जना की सीमाएँ’, ‘भाषा की उत्पत्ति और विकास’ और ‘संस्कृत धातुओं का स्वरूप और शब्द-बीज’ प्रचलित तर्क-प्रणाली की तुलना में हमारी अपनी तर्क-प्रणाली का औचित्य सिद्ध करने की दृष्टि से रखे गए हैं। भाषिक आँकड़ों में पूर्ववर्तिता तथा परवर्तिता का निर्धारण अभी तक कल्पना या यादृच्छिकता के आधार पर ही किया जाता रहा है, पर इन अध्यायों से यह स्पष्ट है कि इस विषय में अधिक ठोस आधार अपनाने की आवश्यकता है।
एक सीमा की ओर सुधी-जनों का ध्यान अवश्य जाएगा। वह यह कि यद्यपि आर्य और द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता की अकाट्य झलक इस पुस्तक अनेक ब्याजों से प्रस्तुत की गई है, परंतु इस समस्या पर जितने विस्तार से विचार किया जाना चाहिए था, उतने विस्तार से यहाँ विचार नहीं किया जा सका है। न केवल यह, अपितु कतिपय अन्य प्रश्नों पर भी, यथा भारोपीय जनों की भाषा, सांस्कृतिक अवस्था तथा मूल निवास आदि पर भी अपेक्षित विस्तार से विचार नहीं किया जा सका है, यद्यपि इस विषय में जो दृष्टिकोण अपनाया गया है उसके लिए पर्याप्त और सुस्पष्ट कारण हैं। पहली समस्या के विषय में हमारा निवेदन केवल इतना है कि इस कृति को इस विषय पर प्रस्तुत लेखक तथा-यदि यह कृति अन्य तर्क-प्रणाली अपनाई गई है वह स्वयं भी दोषपूर्ण है।
यह दृष्टि-दोष क्यों आया, आर्य और द्रविड़ भाषाओं की आंतरिक संगति को इससे पूर्व क्यों लक्ष्य नहीं किया गया और यदि किया भी गया तो उसको चालू ढंग से क्यों निबटा दिया गया, इसकी छानबीन का ही परिणाम है ‘प्राच्यविद्या की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि’। इसका लक्ष्य इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रकांड अपितु उनकी उन सीमाओं को पहचानना मात्र है, जो इन क्षेत्रों में हुई भ्रांतियों के लिए उत्तरदायी रही हैं। यदि प्रस्तुतीकरण में कहीं अन्यथा आभास आए तो उसे भाषा और तर्क-श्रृंखला के तकाजे से उत्पन्न माना जाए। इन धुरीण विद्वानों की अवज्ञा करने का साहस लेखक नहीं कर सकता जिनकी स्वयं की निष्पत्तियों का सहारा लेते हुए ही उसने अपनी चिंता-सरणी स्थिर की है।
इस प्रबंध में एक ऐसी विवादास्पद स्थापना दी जानी थी जिसमें आधारभूत शोध-कार्य का नितांत अभाव था और ऐसे शोध-कार्यों के अभाव में अधिकांश निष्पत्तियाँ सरलीकरणों में बदल सकती थीं, जिन्हें सुधी-जन अनेक दृष्टियों से आपत्तिजनक मान सकते थे। अतः कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर गहराई से विचार करना भी अपेक्षित था। इसके परिणामस्वरूप यह प्रबंध एक सुसंबद्ध कृति के स्थान पर एक ही समस्या से संबंधित, परंतु स्वतंत्र निबंधों का संग्रह प्रतीत होता है, पर किसी ऐसी प्राथमिक कृति की यह अपरिहार्य विवशता थी। ‘आद्य भारोपीय की पुनर्सर्जना की सीमाएँ’, ‘भाषा की उत्पत्ति और विकास’ और ‘संस्कृत धातुओं का स्वरूप और शब्द-बीज’ प्रचलित तर्क-प्रणाली की तुलना में हमारी अपनी तर्क-प्रणाली का औचित्य सिद्ध करने की दृष्टि से रखे गए हैं। भाषिक आँकड़ों में पूर्ववर्तिता तथा परवर्तिता का निर्धारण अभी तक कल्पना या यादृच्छिकता के आधार पर ही किया जाता रहा है, पर इन अध्यायों से यह स्पष्ट है कि इस विषय में अधिक ठोस आधार अपनाने की आवश्यकता है।
 एक सीमा की ओर सुधी-जनों का ध्यान अवश्य जाएगा। वह यह कि यद्यपि आर्य और द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता की अकाट्य झलक इस पुस्तक अनेक ब्याजों से प्रस्तुत की गई है, परंतु इस समस्या पर जितने विस्तार से विचार किया जाना चाहिए था, उतने विस्तार से यहाँ विचार नहीं किया जा सका है। न केवल यह, अपितु कतिपय अन्य प्रश्नों पर भी, यथा भारोपीय जनों की भाषा, सांस्कृतिक अवस्था तथा मूल निवास आदि पर भी अपेक्षित विस्तार से विचार नहीं किया जा सका है, यद्यपि इस विषय में जो दृष्टिकोण अपनाया गया है उसके लिए पर्याप्त और सुस्पष्ट कारण हैं। पहली समस्या के विषय में हमारा निवेदन केवल इतना है कि इस कृति को इस विषय पर प्रस्तुत लेखक तथा-यदि यह कृति अन्यलेखकों के लिए भी प्रेरक बन सकी तो-इतर लेखकों की भावी कृतियों की भूमिका मात्र समझा जाए, न कि स्वतः पर्याप्त कृति । इतने विराट प्रश्न के सभी पहलुओं को एक, और वह भी इतनी स्वल्पकाय, कृति में समेट पाना कुछ हद तक असंभव या कम से कम अशक्य था। जहाँ तक दूसरा प्रश्न है, वह प्रासंगिक किंतु अपरिहार्य समस्या के रूप में ही हमारे सामने था और उस पर लेखक ने अपनी अगली कृति ‘भारोपीय जनों का आदिम निवास और उनका विशाखन’ में पूरे विस्तार से विचार किया है।
अंततः अपनी व्यक्तिगत सीमाओं का उल्लेख करना भी जरूरी है। कुछ तो इस क्षेत्र की विराटता के कारण-जिसमें इतना अधिक काम हुआ है कि समस्त क्षेत्र का सर्वेक्षण तक किसी एक लेखक द्वारा पूरे जीवन काल में संभव नहीं और कुछ अपनी बौद्धिक सीमाओं और सामग्री के आपेक्षिक अभाव के कारण अनेक त्रुटियाँ अवश्य हुई होंगी। निश्चय ही इसमें कुछ ब्योरों में ऐसी भूलें भी हुई होंगी जिनसे विद्वज्जनों का खासा मनोरंजन होगा, परंतु कोई पुरोगामी रचना ऐसी भूलों से पूर्णतः मुक्त भी कैसे रह सकती है। हमारा अनुरोध है कि सुधी-जन हमारी भूलों पर कटाक्षपात करने की बजाय उनसे हमें परिचित कराएँगे और जहाँ हमारे निष्कर्ष अधिक ठोस प्रतीत होते हैं वहाँ वे सहानुभूतिपूर्वक उन्हें ग्रहण कातरेंगे।
अपने अध्ययन क्रम में जिन मित्रों और परिचितों से मैंने इस विषय पर चर्चाएँ कीं और जिन्होंने समय-समय पर मेरा उत्साहवर्धन किया उनके प्रति, और विशेषतः लिपि प्रकाशन के प्रति, जिन्होंने इस पुस्तक को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का उपक्रम किया, मैं हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
15 अगस्त, 1973
– भगवान सिंह
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