Premyog

प्रेम योग यानि भक्ति, जिस प्रकार सांसारिक वस्तुओं में हमारी घोर आसक्ति (प्रीति) होती है वैसी ही प्रबल आसक्ति, दृढ संकल्प, प्रीति यानी प्रेम हमारी जब प्रभु के प्रति होती है तब वह भक्ति कहलाती है। उस प्रेम रूपी भक्ति को प्राप्त करने में हमें सर्वप्रथम साधना की आवश्यकता होती है। साधना की प्राप्ति हमें विवेक, शुद्ध आहार अभ्यास क्रिया यानी दूसरों की भलाई, स्वाध्याय, देवयज्ञ पितृयज्ञ मनुष्य यज्ञ, दान, दया अहिंसा आदि से प्राप्त होती है भक्ति की प्रथम सीढ़ी है. प्रभु के प्रति अनुराग । दूसरा सोपान है गुरु या आचार्य जिस आत्मा से यह शक्ति मिलती है वह है गुरू,और जिस आत्मा को यह शक्ति मिलती है वह है शिष्य । प्रेम यानि भक्ति के लिये हमें किसी प्रतिमा की आवश्यकता नहीं होती प्रतिमा यानि प्रतीक, इष्ट यानी हमारे चुने हुए देवता, वही हमारी मुक्ति या मोक्ष का साधन बनते है। भक्ति भी दो प्रकार की होती है पूर्व भक्ति और परा भक्ति । भक्त के जीवन के निर्माण के लिए भक्ति की सत्य भावना का आत्म सम्मान करने हेतु तथा भक्त के जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये प्रेमयोग यानि प्रीति आवश्यक है। निष्कर्ष है- प्रेम, प्रेमी और प्रेम पात्र याने भक्ति भक्त और भगवान तीनों एक हैं।
स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे।उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया। था लेकिन उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत ‘मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मे विवेकानन्द आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे। जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवों मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं 
इसलिए मानव जाति अर्थात जो मनुष्य दूसरे जरूरतमन्दों की मदद करता है इस सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

भूमिका

ईश्वर की कृपा से विश्व विख्यात स्वामी विवेकानन्द कृत ‘रिलीजन ऑफ् लव्ह’ (Religion of Love) का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो गया। दीर्घ काल से अनुभूत न्यूनता को दूर करने में यह पुस्तक सहायक हुई है। इसमें के कुछ व्याख्यान स्वामी जी ने इंग्लैंड में दिये थे और कुछ अमेरिका में भक्त के जीवन के निर्माण के लिए इस पुस्तक के विषय अत्यावश्यक हैं। वास्तव में भक्ति की सत्य भावना को आत्मसात करने के हेतु तथा मन के जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे महान उपकारी हैं। पुस्तक के विषय का प्रतिपादन सूक्ष्म किंतु साथ ही सुगमता से बोधगम्य है। अनुवादक ने अपने पावन कार्य को श्रद्धा और भक्ति पूर्ण रुख से सच्ची लगन के साथ समाप्त किया है। अनुवाद विश्वसनीय है। शब्दशः है और मूल के भावों का अनुगामी है। हम अनुवादक पं. द्वारकानाथजी तिवारी के हृदय से आभारी हैं। साथ ही हम दुर्ग निवासी सर्वश्री आर. आर. ढगांवकर तथा श्री निशिकांत गांगुली को भी धन्यवाद देते हैं। जिन्होंने अपना सहयोग प्रदान किया है। श्रीयुत डॉ. शिवाजीराव पटवर्धन एवं (श्रीयुत गुलाबचन्द जैन हेड मास्टर,) अमरावती के प्रति कृतज्ञता प्रकाशित किये बिना नहीं रह सकते। जिन्होंने प्रूफ संशोधन कर अमूल्य सहायता की है।
हमें आशा है कि पुस्तक अपना उद्देश्य पूरा करेगी और लोक प्रिय होगी। वाचक गण यह जानकर प्रसन्न होंगे कि इस पुस्तक की आय संस्था के धार्मिक उद्देश्य और परमार्थिक कार्यों में लगाई जाएगी।
१ अक्टूबर १९३६
प्रकाशक

अनुवाद के संबंध में दो शब्द

स्वामी विवेकानन्द जी के नाम से, ऐसा कौन भारतवासी होगा, जो परिचित न हो। उन्होंने हिंदुधर्म की विजयपताका अमेरिका तक में शिकागो की सर्वधर्म महासभा में फहरा कर हिंदुस्तान की कीर्ति सदा के लिए स्थापित कर दी। इन महापुरुष ने अनेक धर्मविषयक ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से बहुतेरे ग्रंथ दुनिया की प्राय: सभी भाषाओं में अनुवादित है। पर उन का यह छोटा सा ग्रंथ “Religion of Love” हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हिंदी में अनुवादित नहीं है और यदि इस का हिंदी अनुवाद में कर सकूं तो इस कमी की पूर्ति हो सकती है ऐसी सूचना श्री स्वामी भास्करेश्वरानंदजी अध्यक्ष रामकृष्ण आश्रम नागपुर ने मुझे दी। मैं यद्यपि इस योग्य नहीं हूँ तथापि उन की आज्ञा को मान देकर यह अनुवाद आरंभ किया और श्री जगदीश्वर की कृपा से अनुवाद पूर्ण भी हो गया। तत्त्वज्ञान का विषय और श्री स्वामी विवेकानन्द जी की ओजस्विनी भाषा में उसका विवेचन कहाँ! और टूटीफूटी हिंदी भाषा में यह अनुवाद कहाँ! पर मूलग्रंथ की भाषा का शब्दशः अनुवाद करने और उस के भाव को त्यों का त्यों रखने का प्रयत्न इस अनुवाद में किया गया है। सफलता कहाँ तक मिल सकी है इस का निर्णय “प्रेमयोग” के सहृदय पाठक ही करेंगे। मैं तो अपने को इतने से ही कृतकृत्य समझंगा कि इसे पढ़कर पाठकों को श्रीस्वामीजी के मूलग्रंथ को पढ़ने की लालसा उत्पन्न हो जाए।
इस अनुवाद की पाण्डुलिपि को मेरे मित्र श्री. रघुनाथराव डगांवकर महाशय ने संशोधन किया और इस अनुवाद के विषय में मेरे दूसरे मित्र श्री निशिकांत गांगुली महाशय समय-समय पर मुझे उत्साहित करते रहे। अतः इन दोनों महाशयों को मेरा हार्दिक धन्यवाद है।
मैं श्री स्वामी भास्करेश्वरानंदजी का अत्यंत हूँ जिनकी सूचना ने मुझे इस पवित्र कार्य की ओर प्रेरित किया।

अनुक्रम

1. पूर्व साधना
2. प्रथम सोपान
3. भक्ति के आचार्य
4. प्रतिमा की आवश्यकता
5. प्रतिमा के भेद
6. इष्ट
7. पूर्वभक्ति और पराभक्ति
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