
41996-97 में मैं शोधकर्ता के रूप में बिपिन त्रिपाठी से मिलने द्वाराहाट गया तो हम दोनों उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौर में हुई अपनी गरम बहसों को भूले नहीं थे। वे तब उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेता की हैसियत से बोलते थे और मैं स्वतन्त्रचेता आन्दोलनकारी के रूप में। चाँचरीधार आन्दोलन के पूरे क्षेत्र में वे साथ घूमे। कहते रहे कि जन-आन्दोलनों का समग्र इतिहास सामने आना चाहिए। वह गुम नहीं होना चाहिए। उसी का नतीजा ‘हरी भरी उम्मीद’ पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
मिट्टी, पानी और जंगल पृथ्वी में जीवन के आधार हैं। पहाड़ी जीवन में जंगलों की केन्द्रीयता किसी भी और इलाके से ज़्यादा । जलवायु परिवर्तन के दौर में जंगलों की वैश्विक महत्ता समझी जाने लगी है। औपनिवेशिक काल में जंगलों में पहला हस्तक्षेप हुआ। बेगार और जंगलात की नीतियों के विरोध ने उत्तराखण्ड को राष्ट्रीय संग्राम से जोड़ा। इसे जंगल सत्याग्रह नाम दिया गया। गाँधी ने इसे ‘रक्तहीन क्रान्ति’ कहा था।
आज़ादी के बाद जंगलात नीतियाँ पूर्ववत् बनी रहीं । अति दोहन और आपदाओं ने इनके दुष्प्रभावों को बढ़ाया। अन्ततः यह प्रतिरोध चिपको आन्दोलन के रूप में मुखरित हुआ। चिपको एक आर्थिक और पारिस्थितिक आन्दोलन के रूप में विकसित होता गया। इसकी बहुत-सी उपलब्धियाँ रहीं, जिनसे यह विश्वविख्यात हुआ। इसने एक ओर उत्तराखण्ड की स्थानीय चेतना निर्मित की, दूसरी ओर उसे समस्त विश्व से जोड़ा ।
हरी भरी उम्मीद बीसवीं सदी के विविध जंगलात आन्दोलनों के साथ चिपको आन्दोलन का पहला गहरा और विस्तृत अध्ययन-विश्लेषण प्रस्तुत करती है। यह अध्ययन समाज विज्ञान और इतिहास अध्ययन की सर्वथा नयी पद्धति का आविष्कार भी है।
शेखर पाठक
तीन दशकों तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में शिक्षक; भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला तथा नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में फेलो रहे प्रो. शेखर पाठक हिमालयी इतिहास, संस्कृति,
