HARI BHARI UMMEED – SHEKHAR PATHAK

41996-97 में मैं शोधकर्ता के रूप में बिपिन त्रिपाठी से मिलने द्वाराहाट गया तो हम दोनों उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौर में हुई अपनी गरम बहसों को भूले नहीं थे। वे तब उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेता की हैसियत से बोलते थे और मैं स्वतन्त्रचेता आन्दोलनकारी के रूप में। चाँचरीधार आन्दोलन के पूरे क्षेत्र में वे साथ घूमे। कहते रहे कि जन-आन्दोलनों का समग्र इतिहास सामने आना चाहिए। वह गुम नहीं होना चाहिए। उसी का नतीजा ‘हरी भरी उम्मीद’ पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
 
मिट्टी, पानी और जंगल पृथ्वी में जीवन के आधार हैं। पहाड़ी जीवन में जंगलों की केन्द्रीयता किसी भी और इलाके से ज़्यादा । जलवायु परिवर्तन के दौर में जंगलों की वैश्विक महत्ता समझी जाने लगी है। औपनिवेशिक काल में जंगलों में पहला हस्तक्षेप हुआ। बेगार और जंगलात की नीतियों के विरोध ने उत्तराखण्ड को राष्ट्रीय संग्राम से जोड़ा। इसे जंगल सत्याग्रह नाम दिया गया। गाँधी ने इसे ‘रक्तहीन क्रान्ति’ कहा था।
आज़ादी के बाद जंगलात नीतियाँ पूर्ववत् बनी रहीं । अति दोहन और आपदाओं ने इनके दुष्प्रभावों को बढ़ाया। अन्ततः यह प्रतिरोध चिपको आन्दोलन के रूप में मुखरित हुआ। चिपको एक आर्थिक और पारिस्थितिक आन्दोलन के रूप में विकसित होता गया। इसकी बहुत-सी उपलब्धियाँ रहीं, जिनसे यह विश्वविख्यात हुआ। इसने एक ओर उत्तराखण्ड की स्थानीय चेतना निर्मित की, दूसरी ओर उसे समस्त विश्व से जोड़ा ।
हरी भरी उम्मीद बीसवीं सदी के विविध जंगलात आन्दोलनों के साथ चिपको आन्दोलन का पहला गहरा और विस्तृत अध्ययन-विश्लेषण प्रस्तुत करती है। यह अध्ययन समाज विज्ञान और इतिहास अध्ययन की सर्वथा नयी पद्धति का आविष्कार भी है।

शेखर पाठक

तीन दशकों तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में शिक्षक; भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला तथा नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में फेलो रहे प्रो. शेखर पाठक हिमालयी इतिहास, संस्कृति,
सामाजिक आन्दोलनों, स्वतन्त्रता संग्राम तथा अन्वेषण के इतिहास पर यादगार अध्ययनों के लिए जाने जाते हैं। कुली बेगार प्रथा, पण्डित नैनसिंह रावत, जंगलात के आन्दोलनों आदि पर आपकी किताबें विशेष चर्चित रही हैं।
आप उन बहुत कम लोगों में हैं जिन्होंने पाँच अस्कोट आराकोट अभियानों सहित भारतीय हिमालय के सभी प्रान्तों, नेपाल, भूटान तथा तिब्बत के अन्तर्वर्ती क्षेत्रों की दर्जनों अध्ययन यात्राएँ की हैं। भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण तथा न्यू स्कूल के कैलास पवित्र क्षेत्र अध्ययन परियोजना से भी आप जुड़े रहे। आपके द्वारा लिखी कुछ किताबें, अनेक शोध-पत्र तथा सैकड़ों लोकप्रिय रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। हिमालयी जर्नल पहाड़ के 20 बृहद् अंकों तथा अन्य अनेक प्रकाशनों का आपने सम्पादन किया है। फिलहाल आप पहाड़ फाउंडेशन से जुड़े हैं और पहाड़ का सम्पादन करते हैं।
सौंपता हूँ यह किताब उस समाज को जो
जंगलों के मायने समझता है

शुरुआत /आभार

उत्तराखण्ड में बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में हुए जंगलात आन्दोलन तथा हमारे समय के चिपको आन्दोलन से सम्बन्धित अपने शोधकार्य ‘अनक्वाइट वुड्स (1980) की भूमिका में सुप्रसिद्ध इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने यह किया था कि चिपको आन्दोलन का विस्तृत और सुनिश्चित इतिहास मेरे द्वारा लिखा जा रहा है। दरअसल 1995 में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान की फैलोशिप मिलने पर ही मैंने यह अध्ययन विधिवत शुरू किया। अगले ढाई सालों में मैंने वे सभी क्षेत्र पुनः देखे और समझे, जहाँ मैं आन्दोलन के दौर में अनेक बार गया था। तमाम आन्दोलनकारियों और आन्दोलन के विभिन्न हिस्सेदारों से मैं फिर मिला, जिनसे लगातार मेरा सम्पर्क था। अभिलेखागारों, पुस्तकालयों और अनेक व्यक्तिगत संग्रहों से सामग्री संकलन का कुछ कार्य पहले कर चुका था। चिपको आन्दोलन सम्बन्धी व्यक्तिगत संग्रहों के कुछ और पत्र तथा दस्तावेज़ इस दौर में देखे। सरला बहन द्वारा अपने सहयोगियों को लिखे गये महत्त्वपूर्ण पत्र और बहुत-सी नयी सामग्री मिली। इक्कीसवीं सदी में डैन जैन्सन के कारण पिछले 225 साल के विभिन्न जार्नल्स और दुर्लभ किताबों को उल्टा-पुल्टा।
1998 में शिमला से लौटते समय में इस अध्ययन की एक पाण्डुलिपि संस्थान में जमा कर आया था, जिसे मैं तब प्रकाशन योग्य नहीं मानता था। फिर में अध्यापन तथा अन्य कामों में इतना व्यस्त हो गया कि इस पाण्डुलिपि की तरफ झाँकने का मौका नहीं मिला। जब भी राम गुहा, अनिल अग्रवाल, समीर बनर्जी, चेतन सिंह, ओ.सी. हांडा या प्रकाश उपाध्याय जैसे मित्र मिलते तो पूछते कि काम कहाँ पहुँचा है? गिर्दा ने कुछेक बार उलाहना दिया। कोई हफ्ता ऐसा नहीं गुज़रता था जब उमा मुझे इसकी याद नहीं दिलाती थी। 1
2015 के मध्य में हमें अपने बेटे-बहू के पास सैन होजे (कैलीफोर्निया) में 3 माह रहने का मौका मिला घूमने के पुराने ‘अमल’ पर नियन्त्रण रख, शनि तथा इतवार को छोड़कर में हर सप्ताह 4-5 दिन इस काम मैं जुटा रहा। हालांकि वहाँ मेरे पास पूरी सन्दर्भ सामग्री नहीं थी। पुराना ड्राफ्ट भर था, पर सब कुछ मेरे दिमाग़ में था। अगस्त में वापसी के समय में इसे बड़ी सीमा तक पूरा कर चुका था। दो खो गये अध्याय पुनः लिखे गये और दो नये भी इस तरह उमा, सोमी, माही तथा रूपिन का संयुक्त दबाव बहुत निर्णायक रहा। चारों का आभार बोरिस, इसा बेला तथा साशा तीनों सेपियन्स न होकर भी मेरे मददगार बने।
अब लगता है कि यह शोधकार्य पाठकों, विद्वानों, उत्तराखण्ड और हिमालय के हितैषियों तथा चिपको आन्दोलन के हिस्सेदारों के साथ उस समाज के सामने प्रस्तुत करने लायक हो गया है, भौतिक जरूरतों से जुड़े होने के साथ जिसकी आत्मा और अस्तित्व की आवाजों की तरह थे ये सभी जंगलात आन्दोलन। इतनी लड़ाइयों के बाद भी ये जंगल इस समाज के अपने नहीं बन पाये हैं। आजाद भारत की सरकारें जंगलात के मामले में औपनिवेशिक दृष्टिकोण और ‘राज्य मनोविज्ञान’ से बाहर नहीं आ सकीं। जो कुछ हो सका है वह जन-आन्दोलनों के दबाव का परिणाम है। पर वह पर्याप्त नहीं है।
मेरी कोशिश रही है कि यह अध्ययन बीसवीं सदी में उत्तराखण्ड में चली जंगलात की विभिन्न लड़ाइयों और विशेष रूप से चिपको आन्दोलन का दस्तावेज बन सके और इस विषय का हर आयाम सामने आ सके। जंगलात के विभिन्न आयामों को समझने के साथ आन्दोलन में हिस्सेदार सभी चरित्र / व्यक्तित्व सामने आ सकें। सबसे अधिक यह कोशिश रही कि विविध स्रोत सामग्री का अधिकतम परिपक्वता और विवेक सम्मतता के साथ इस्तेमाल हो सके। मेरे लिए अपने आपको चिपको आन्दोलन से अलग कर इतिहास के विद्यार्थी की हैसियत से इसे देखने की स्वतन्त्र नजर विकसित करने में शायद एक दशक से अधिक लग गया। अपने को निर्मम बनाना निश्चय ही कठिन कार्य है और मैं यह कर सका कि नहीं सिर्फ जानकार और प्रबुद्ध लोग बता सकेंगे।
इस अध्ययन का अध्याय विवरण देना उचित होगा। पहले अध्याय में जंगलात आन्दोलनों के भूगोल यानी उत्तराखण्ड का अपेक्षाकृत विस्तृत परिचय देने का प्रयास किया है। दूसरे अध्याय में उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक शासन के आगमन और जंगलात के बदलते परिदृश्य के साथ टिहरी रियासत पर नज़र डाली गयी है। तीसरे अध्याय में जंगलात की पहली लड़ाई का विस्तार है कि कैसे जंगलात सम्बन्धी चेतना और बिखरे विरोध का रूपान्तरण एक सुसंगठित प्रतिरोध में हुआ। कैसे बेगार तथा जंगलात के आन्दोलनों ने इस दूरस्थ क्षेत्र को भारतीय संग्राम से जोड़ा। चौथे अध्याय में आजादी के बाद के जंगलात परिदृश्य को देखते हुए कुजजास की स्थापना और उसके सुझावों को समझा गया है। पाँचवें अध्याय में चिपको के प्रस्फुटन से पहले की, 1962 तथा 1965 के युद्धों के बाद से अलकनन्दा बाढ़ तक के हालात की चर्चा है। इसी में गढ़वाल कमिश्नरी स्थापित होने तथा उत्तराखण्ड के 5 समुदायों को अनुसूचित जनजाति बनाये जाने के प्रसंग शामिल हैं।
छठे अध्याय में चिपको आन्दोलन की पहली लहरों के प्रस्फुटन और विकास को देखा गया है। गोपेश्वर, मण्डल, रामपुर फाटा के बाद कैसे रेणी की चिपको अभिव्यक्तियाँ प्रकट होती चली गयीं। किस तरह चिपको जाँच समिति बिठाई गयी। अध्याय सात में एक ओर उत्तरकाशी और दूसरी ओर कुमाऊँ से जन्मी और विकसित हुई चिपको की दूसरी लहर को समझने का प्रयास है और कैसे आपात्काल ने इस प्रक्रिया को रोक दिया। अध्याय आठ में तीसरी लहर के साथ चिपको के नये रूप, उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के जन्म, नैनीताल में नीलामी, अदवाणी आन्दोलन और दमन की रचना प्रक्रिया को प्रस्तुत किया गया है। अध्याय नौ में चौथी लहर के रूप में भ्यूँढार, चाँचरीधार, बडियारगढ़, जनोटी-पालड़ी, रंगोड़ी-घ्याड़ी तथा डूंगरी-पैन्तोली के विभिन्न चिपको प्रतिरोधों को प्रस्तुत किया गया है।
अध्याय दस में वन अधिनियम 1980, स्टार पेपर मिल से अनुबन्ध की समाप्ति और 1000 मीटर से ऊपर हरे कटान पर लगी रोक के बाद किस तरह चिपको आन्दोलन अनेक स्थानों पर चलता रहा। सम्मान और संशय के बीच आ पहुँचे आन्दोलन की पड़ताल की गयी है। इसी अध्याय में टिहरी बाँध विरोधी तथा नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन को चिपको की अगली कड़ियों के रूप में देखा गया है। अध्याय ग्यारह में नेतृत्व, संगठन, जन हिस्सेदारी तथा कुछ नेता-कार्यकर्ताओं के बहाने चिपको
आन्दोलन की पड़ताल की गयी है। अध्याय बारह में चिपको के आर्थिक और पारिस्थितिक पक्षों के गहन अन्तःसम्बन्ध को विश्लेषित किया गया है। अध्याय तेरह चिपको आन्दोलन में महिलाओं और युवाओं के योगदान की महत्ता के साथ बताता है कि कैसे उनकी हिस्सेदारी से चिपको एक गहन सामाजिक आन्दोलन बन सका।
अन्तिम अध्याय में चिपको को चार दशकों में बनते-सिमटते देखा गया है कि कैसे धुंधलाती चमक के बावजूद इसके अवशेषों में सतत कौंध बनी हुई है। सबसे अन्त में विविध सन्दर्भ सामग्री दे दी गयी है। कुछ फोटो भी एक एल्बम में दिये हैं।
इस अध्ययन के प्रकाशन के समय मेरे सामने वे सभी व्यक्ति साक्षात खड़े हैं, जो इन आन्दोलनों के महत्त्वपूर्ण नेता, कार्यकर्ता, हिस्सेदार, अध्येता, इतिहासकार या विश्लेषक रहे हैं। उनसे हुई बातों- मुलाकातों, उनसे मिली सामग्री तथा उनकी पुस्तकों-लेखों ने इस विषय को समझने और विश्लेषित करने में मदद दी। अतः उन सबका अन्तरंग आभार। मैं सभी के साथ संवेदना और निर्ममता से पेश आया हूँ। संवेदना इस अर्थ में कि किसी के भी योगदान का कोई पक्ष न छूटे और निर्मम इस अर्थ में कि किसी भी नेता, कार्यकर्ता, आन्दोलनकारी, प्रशासन, सरकार या अध्येता-विश्लेषक, पत्रकार अर्थात कुल मिलाकर आन्दोलन और अध्ययन की कोई फिसलन आँख से ओझल न हो। मेरी समझ से यही इतिहासकार या समाजविज्ञानी का काम है।
आज से चार दशक पहले सुन्दरलाल बहुगुणा ने जिन युवाओं को खोजा था और ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ का बीज जिनके भीतर सदाबहार कर दिया था, उनमें मैं भी था। सरला बहन, विमला बहुगुणा और राधा भट्ट ने प्रेरणा दी और स्नेह भी चण्डी प्रसाद भट्ट से निरन्तर सीखते रहे। उनके साथ संघर्ष, शिविर और सतत यात्राओं में लगातार तर्क-वितर्क जारी रहा। शमशेर बिष्ट का साथ 1972 से हुआ था, जो निर्बाध जारी है। 1974 में कुँवर प्रसून, प्रताप शिखर और विजय जरधारी साथी बने और यह रिश्ता आजन्म हो गया। तमाम आन्दोलन और 2004 तथा 2014 के अस्कोट-आराकोट अभियान इसके गवाह बने। कुँवर प्रसून और प्रताप शिखर असमय ही चिपको की दुनिया और हमारे पहाड़ों से चले गये। अन्तिम समय तक वे सक्रिय और संवेदनशील बने रहे। शमशेर बिष्ट और विजय जरधारी अपनी जगह सक्रिय खड़े हैं। घनश्याम सैलानी की रचनात्मकता और स्पष्टवादिता अलग ही तरह की थी, जब हम उन्हें बुजुर्ग मानने लगते तो वे अपनी निश्छलता से दोस्त बन जाते थे।
पहले अस्कोट-आराकोट अभियान से वापसी के बाद 1974 में बिपिन त्रिपाठी ने अलमोड़ा के युवाओं को स्थानीय वनान्दोलन से जोड़ा। इस समय चिपको आन्दोलन की बयार चमोली से अलमोड़ा की ओर बहने लगी थी। युवाजन गोपेश्वर, मण्डल, फाटा, रेणी (चमोली) और वयाली (उत्तरकाशी) का स्पर्श लेकर लौटे थे। 1996-97 में मैं शोधकर्ता के रूप में बिपिन त्रिपाठी से मिलने द्वाराहाट गया तो हम दोनों उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौर में हुई अपनी गरम बहसों को भूले नहीं थे। वे तब उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेता की हैसियत से बोलते थे और मैं स्वतन्त्रचेता आन्दोलनकारी के रूप में। चाँचरीधार आन्दोलन के पूरे क्षेत्र में वे साथ घूमे। कहते रहे कि जन-आन्दोलनों का समग्र इतिहास सामने आना चाहिए। वह गुम नहीं होना चाहिए।
राजीव लोचन साह से 1977 में ‘नैनीताल समाचार’ के जन्म के समय से दोस्ती हुई और ि के साथ परवान चढ़ी। नैनीताल में उनका और गिर्दा का जंगलों की नीलामी के विरोध में जाना बहुत स्पष्टता से याद है। इन दोनों और उनकी टीम का नैनीताल और पूरे उत्तराखण्ड में पत्रका लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का ताना-बाना तथा नागरिक समाज बनाने में दिया गया योगदान किसी से छिपा नहीं है। गिर्दा से परिचय तो पहले हो गया था पर 1974 से यह गहन होता गया। 1971 में खुद गिर्दा का जीवन चिपको आन्दोलन ने एक अलग और यादगार रास्ते में डाल दिया था।
केदार सिंह रावत, आलमसिंह बिष्ट, वासवानन्द नौटियाल, जैत सिंह, कमलाराम नौटियाल गोविन्द सिंह रावत, धूम सिंह नेगी, विद्यासागर नौटियाल, इन्द्रमणि बडोनी, गोविन्द सिंह नेगी, प्रताप सिंह पुष्पाण, शिशुपाल सिंह कुँवर, मुरारीलाल, आनन्द सिंह विष्ट, हयात सिंह, सच्चिदानन्द भारती जसवन्त सिंह बिष्ट, भवानी भाई, चन्दन सिंह राणा, विश्वम्भरनाथ साह ‘सखा’, रमेश पहाड़ बिहारीलाल, मोहन सिंह आदि सभी पुराने सम्माननीय साथी रहे हैं। शोधकर्ता की हैसियत से जिनह पास भी गया सहयोग मिला।
पूरन तिवारी (पीसी), प्रदीप टम्टा, राजा बहुगुणा, षष्टी दत्त जोशी, बालम जनोटी, दीवान धपोला, जगत सिंह रौतेला, विनोद पाण्डे, निर्मल जोशी, कपिलेश भोज, शिव नयाल, चन्द्रशेखर भट्ट, जसवन्त नेगी, प्रकाश फूलोरिया, महेन्द्र बिष्ट आदि अलमोड़ा कॉलेज, अलमोड़ा, डीएसबी कॉलेज, नैनीताल या नैनीताल पॉलीटेक्नीक के विद्यार्थी थे और 1977 में ही ये चिपको आन्दोलन में हिस्सेदार बने थे। ये युवा तबसे अनेको को उद्वेलित करते रहे हैं। इनमें से अनेक अभी भी अपनी-अपनी तरह से सक्रिय हैं।
श्यामा देवी, इन्दिरा देवी, गौरा देवी, सुदेशा देवी, सौपा देवी, बचनी देवी, कुन्ती देवी, कौशल्या देवी, भरादी देवी, लखमा देवी, गणी देवी, सोणी देवी, गीता देवी, कल्पी देवी, दूसरी गीता देवी, भकुली देवी, पवित्रा देवी, नन्दी देवी, सुलोचना देवी, भाकी देवी, पंचमी देवी, काली देवी, कांती देवी, बचुली देवी, लक्ष्मी देवी, भागुली देवी, बसन्ती देवी; मथुरा देवी, पार्वती देवी, गायत्री देवी, मालती देवी, कलावती देवी, राधा देवी रावत तथा अन्य अनेक आन्दोलन के दौर से ही सभी को प्रेरित करती रही हैं। ये सभी चिपको के आधार स्तम्भों में रहीं।
केदार सिंह कुंजवाल, गोपालदत्त पाण्डे, योगेश बहुगुणा, सुदर्शन कठैत, गोपालदत्त भट्ट, रामराज बडोनी, दयाल सिंह भण्डारी, जीवानन्द श्रियाल, षष्टीदत्त भट्ट, महेन्द्र मटियानी, हरीश करायत, दीवान मटियानी, पूरन चन्द्र तिवारी (पीसीटी), दयाल भण्डारी (गोपेश्वर), बहादुरसिंह धपोला, गणेश दत्त जोशी, राजीवनयन बहुगुणा, खड़क सिंह खनी, कमला पन्त, बसन्त खनी आदि भी मेरे सामने हैं। इनमें से कुछ अभी भी सक्रिय हैं, अनेक अब हमारे बीच नहीं हैं।
चिपको की विभिन्न अभिव्यक्तियों तथा आन्दोलन की बाद में नज़र आने वाली तीनों धाराओं से जुड़े कुछेक साथियों के पास अनेक बार जाने का सौभाग्य मिला। इन मुलाकातों से समयानुसार सोच-समझ में हुए बदलावों का अहसास हुआ। विभिन्न साथियों की बहुत सारी आपसी गलतफहमियाँ उजागर हुई। आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और उपेक्षाओं का द्वन्द्व अनेक बार प्रकट हुआ। लगा कि अधिसंख्य आन्दोलनकारियों में भी सामान्य आदमी की सी उम्मीद, अपेक्षा और आकाक्षा होती है। उपेक्षा को बहुत कम लोग पचा पाते हैं। आदर्शवाद बहुत दिन नहीं टिकता और आजन्म लड़ाकू बने रहना सभी के लिए सम्भव नहीं होता है। सामान्य आदमी और सामान्य आन्दोलनकारी कभी ठहरता है, चुप होता है पर लड़ाई नहीं छोड़ता। कभी-कभी चुप्पी में काम की पड़ताल का आगामी तैयारी निहित होती है।
जंगलात आन्दोलनों के अनेक हीरे अब हमारे बीच नहीं रहे। केदार सिंह रावत, आलम सिंह बिष्ट, वासवानन्द नौटियाल, चिरंजीलाल मह, जसवन्त सिंह बिष्ट, कमलाराम नौटियाल, गोविन्द सिंह रावत, घनश्याम सैलानी, विद्यासागर नौटियाल, इन्द्रमणि बडोनी, गोविन्द सिंह नेगी, आनन्द सिंह बिष्ट, हयात सिंह, षष्टीदत्त जोशी, बालम जनोटी, श्यामादेवी, इन्दिरा देवी, गौरादेवी, दयाल सिंह भण्डारी, जीवानन्द श्रियाल, कुन्तीदेवी, लखमा देवी, पीताम्बर तिवारी, महेन्द्र मटियानी, निर्मल जोशी, चक्रधर तिवारी, कुँवर प्रसून, प्रताप शिखर, विपिन त्रिपाठी, बृमो सिंह नेगी ‘आग्नेय’, खड़क सिंह खनी, चन्दन सिंह राणा, लक्ष्मी नौटियाल, गिरीश तिवारी गिर्दा, बहादुरसिंह धपोला, षष्टीदत्त भट्ट तथा हरीश करायत हमारे बीच से चले गये हैं। पर उन्हें कौन भूल सकता है? मैं इन सबको अत्यन्त हार्दिकता से याद करता हूँ।
चिपको आन्दोलन के बिना इनमें से शायद ही कोई हमारी स्मृति में आये और इनके बिना चिपको आन्दोलन का इतिहास अधूरा ही रहेगा। उक्त आन्दोलनकारियों की हिस्सेदारी तथा सक्रियता में अन्तर अवश्य रहा। कुछ एक दौर में अपना योगदान दे रहे थे और कुछ निरन्तर रचनाशील हैं। कुछ को ऐतिहासिक शक्तियों ने आन्दोलन को विकसित करने का मौका दिया और कुछ को आन्दोलन ने ही विकसित किया। कुछ लोग आन्दोलन के दौर में संक्षिप्त शिरकत कर सके। कुछ प्रत्यक्ष राजनीति में चले गये। जन-आन्दोलन और व्यक्ति का रिश्ता इससे समझ में आता है। यह निर्विवाद लगा कि आन्दोलन व्यक्तियों को बड़ा बनाता है, सामान्य को शीर्षस्थ बनाता है पर आन्दोलन सदा व्यक्ति (नेता, कार्यकर्ता) से बड़ा होता है।
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उत्तराखण्ड के पूर्व तथा वर्तमान मुख्यमन्त्री, संसद सदस्यों, विधायकों, विभिन्न दलों के नेताओं, वन पंचायत के पंचों तथा अन्य जन प्रतिनिधियों; वयोवृद्ध सुन्दरलाल बहुगुणा, चण्डी प्रसाद भट्ट, विमला बहुगुणा, राधा बहन शमशेर विष्ट, पूरन तिवारी, राजा बहुगुणा, विजय जरधारी, सुदेसा देवी, धूम सिंह नेगी, सच्चिदानन्द भारती, धन सिंह राणा, बाली देवी (लाटा/रेणी); कलावती देवी (बछेर), बसन्ती बहन (कौसानी) तथा कमला पन्त सहित सभी महिला आन्दोलनकारियों या जगदीश चन्द्र पन्त, मुकुल सनवाल, निर्मल कुमार जोशी, आई.डी. पाण्डे, आर.बी.एस. रावत या जे.एस. मेहता जैसे रचनात्मक पूर्व प्रशासकों और हिमालय तथा उत्तराखण्ड के तमाम शुभचिन्तकों के साथ उत्तराखण्ड की महिलाओं और युवाओं को आज यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि चिपको का ऐजेण्डा अभी अधर में लटका है। सबको मिलकर इस तरफ देखना चाहिए। कुछ आर्थिक बेहतरी और प्रभावी प्रवास के बावजूद यदि हमारे संसाधन नहीं रहेंगे तो हमारी कोई हैसियत नहीं रहेगी। नये राज्य में जंगलात के प्रश्न को नयी और खुली नज़र से देखने में पहल होनी चाहिए। नया राज्य पिछले 15 सालों में जंगलात के मामले में ‘उत्तर प्रदेशी’ ही रहा है। इससे आगे चल कर जाना होगा।

आभार

बहुत सारे लोग मुझे इस मौके पर याद आ रहे हैं।
इसे सबसे पहले रामचन्द्र गुहा का आभार। दरअसल उन्होंने ही मुझे इस काम में उलझाया और फिर पूरा ‘करने को विवश किया। मैं बीस साल से अधिक समय तक धारण किये गये उनके धैर्य और प्यार से मुझे ‘मेरा अपराध’ याद दिलाना न भूलने के लिए याद करता हूँ। अपनी नयी किताब की भूमिका में भी उन्होंने उम्मीद दोहराई कि एक दिन में इस काम को पूरा कर लूंगा। उनके बिना मैं इस अध्ययन को पूरा करने की कल्पना नहीं कर सकता।
मैं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के निदेशक मृणाल मिरी, विभिन्न फैलो जनीं तथा शिमला के मित्रों को हार्दिकता से याद करता हूँ। रणधीर सिंह, मोहिन्दर कौर, सुजाता मिरी, भीष्म साहनी, शीला साहनी, कृष्णा सोबती, उदयन मिश्र, तिलोत्तमा मिश्र, चिदानन्द दासगुप्ता, शिवनाथ, राजी सेठ, सुरेश शर्मा, चेतन सिंह, ओ.सी. हाण्डा, समीर बनर्जी, उमा बनर्जी, जयवन्ती डिमरी, उदय , टी.आर.एस. शर्मा, अरुण वाली, सुचेता महाजन, प्रेम सिंह, कुमकुम यादव, वीरमारत तलवार, आलोक भल्ला, ज्योतिर्मय शर्मा, रुस्तम सिंह, जावेद आलम, एस.आर. हरनोट, अनिकेत आलम: संस्थान के सचिव के.जे.एस. चतरथ, जन सम्पर्क और प्रकाशन अधिकारी अशोक शर्मा, एकेडेमिक सहायक स्व. अब्दुल जब्बार, लाइब्रेरियन देवेन्द्र मुखर्जी तथा अलेखा मुखर्जी, प्रशासनिक अधिकारी भानु कुथियाला, फूलों और हरियाली के संरक्षक मेलाराम शर्मा तथा समस्त स्टाफ को सप्रेम याद करता हूँ। शिमला में मुझे वहाँ के तमाम प्यारे लोगों के अलावा हमारे समय की कुछ बड़ी हस्तियों के साथ रहने या उनसे संवाद का मौका मिला। यह सुखद संयोग है कि शिमला संस्थान में प्रकाशन हेतु यह पोथी जमा करते समय मेरे सह फैलो रहे चेतन सिंह संस्थान के निदेशक हैं।
विभिन्न प्रकार की दुर्लभ शोध सामग्री उपलब्ध कराने के लिए नवजीवन आश्रम, सिल्यारा (टिहरी); दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल, गोपेश्वर; लक्ष्मी आश्रम, कौसानी; शिशुपाल सिंह कुँवर, ओमप्रकाश भट्ट (गोपेश्वर); विपिन त्रिपाठी /रमेश त्रिपाठी (द्वाराहाट); गोविन्द सिंह रावत (जोशीमठ), कुँबर प्रसून, रंजना प्रसून, प्रताप शिखर, विजय जरधारी तथा धूम सिंह नेगी (जाजल, टिहरी); कमलाराम नौटियाल (उत्तरकाशी); राधा दीदी (कौसानी); शमशेर विष्ट, जगत रौतेला (अलमोड़ा); नरोत्तम प्रसाद त्रिपाठी (लखनऊ); सुनील कैथोला, संजय कोठियाल, नरेन्द्र भटनागर (देहरादून); अनुपम मिश्र, अनिल अग्रवाल, सुनीता नारायण (दिल्ली) आदि का अन्तरंग आभार ।
राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली, उ.प्र. राज्य अभिलेखागार तथा विधानसभा पुस्तकालय, लखनऊ, क्षेत्रीय अभिलेखागार, इलाहाबाद, देहरादून तथा नैनीताल राष्ट्रीय पुस्तकालय, कलकत्ता, इण्डिया ऑफिस पुस्तकालय, लन्दन भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला नेहरू स्मारक पुस्तकालय तथा संग्रहालय, दिल्ली, सैन होजे विवि पुस्तकालय, सैन होजे; स्वेन हेडिन फाउण्डेशन, स्टाकहोम: सर्वे ऑफ इण्डिया तथा एफ.आर.आई. पुस्तकालय, देहरादून, डीएसबी पुस्तकालय, प्रशासन अकादमी पुस्तकालय तथा नगरपालिका पुस्तकालय, नैनीताल का आभार ।
श्रीमाधव आशीष, शंकर लाल शाह, गोपाल गाँधी, गिरीश तिवारी गिर्दा, पुष्पेश पन्त, पी.सी. जोशी, डी.पी. अग्रवाल, राम सिंह, लालबहादुर वर्मा, आर. एस. टोलिया, तारा चन्द्र त्रिपाठी, के.एस. वल्दिया, ए.एन. पुरोहित, डी.पी. जोशी, मदन भट्ट, प्रयाग जोशी, जे.एस. मेहता, प्रकाश उपाध्याय, जयन्ता बन्द्योपाध्याय, प्रभात उप्रेती, देवेन्द्र मेवाड़ी, थियो सेफलस, महेश रंगराजन, बटरोही, अजय रावत, अतुल सकलानी, बृजमोहन खण्ड्डी, रघुबीर चन्द, नवीन जुयाल, महेन्द्र कुँवर तथा अन्य अनेक विशेषज्ञों मित्रों की याद आना स्वाभाविक है।
अपने शोधार्थियों-मित्रों हीरा भाकूनी, अनिल जोशी, गिरिजा पाण्डे, किरन त्रिपाठी, गोविन्द पन्त राजू ज्योति साह, सावित्री कँड़ा, शेरसिंह पांगती, कनक रावत, नमिता हर्बोला, गिरधर नेगी, अनीता गब्याल, सपना मिश्र, संजय घिल्डियाल, देवकी बोरा, कैलाश तिवारी, भुवन शर्मा, ललित अधिकारी, गिरिजाशंकर मुनगली, तनवीर हुसेन दर, स्मिता रावत, वीरेन्द्र नेगी, वन्दना साह, कविता जोशी, रितेश साह, प्रतिभा शर्मा, अंजुम अली, आशाराम बिजल्वाण, मधु पाण्डे, पूरन विष्ट तथा अन्य विभागीय सहयोगियों तथा अपने अन्य तमाम शोधार्थियों को याद करता हूँ। ललित पन्त, कमल जोशी, अनूप साह, धीश कपूर, नवीन जोशी, आशुतोष उपाध्याय, बी. आर. पन्त, भूपेन मेहता, चन्दन डांगी, हरीश पाठक, रितु जोशी, केसी जोशी, प्रदीप पाण्डे, बसन्ती पाठक, वीरेन्द्रपाल तथा मास्टर किंशुक आदि आभार के बराबर हकदार हैं। कुँवर प्रसून, आशुतोष उपाध्याय, चक्रधर कण्डवाल, आशाराम बिजल्वाण, प्रदीप पाण्डे, ओमी भट्ट, अरण्य रंजन तथा धर्मानन्द उनियाल ‘पथिक’ तो क्षेत्रीय भ्रमण में भी कुछेक बार मेरे साथ आये। उनके लिए अतिरिक्त आभार इस किताब में प्रकाशित नक्शों के लिए भूपेन मेहता का आभार।
गोपेश्वर कोठियाल, भैरवदत्त धूलिया, ललिताप्रसाद नेयाणी, रामप्रसाद बहुगुणा, धर्मानन्द पाण्डे, विष्णुदत्त उनियाल, रमेश पहाड़ी, कैलास पाण्डे, शिरीष पाण्डे, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, राजीव लोचन साह, नित्यानन्द भट्ट, नेत्रसिंह रावत, अनुपम मिश्र, मंगलेश डबराल, संजय कोठियाल, मुकुल शर्मा, कनक दीक्षित, मनीषा आर्याल, अमित मित्र, अनिल अग्रवाल तथा सुनीता नारायण आदि का स्मरण भी स्वाभाविक है, जिन्होंने चिपको और स्थानीय जन-आन्दोलनों को समझने की कोशिश की और उन्हें संवेदना के साथ अपने पत्रों में स्थान दिया। रमेश पहाड़ी तथा राजीव लोचन साह तो सक्रिय आन्दोलनकारियों के रूप में भी याद किये जाते रहेंगे।
‘हरी भरी उम्मीद’ में प्रकाशित सभी ऐतिहासिक महत्व के फोटो उस समय के दुर्लभ दस्तावेज हैं। इन्हें उपलब्ध कराने के लिए सर्वश्री अनुपम मिश्र कुँबर प्रसून, प्रमोद साह, सुन्दरलाल बहुगुणा, धूम सिंह नेगी, चण्डी प्रसाद भट्ट, रमेश पहाड़ी, सच्चिदानन्द भारती, धनसिंह राणा, गोविन्द पन्त राजू, ओम प्रकाश भट्ट, गम्भीर सिंह फर्स्वाण, महानन्द बिष्ट, क्रान्ति भट्ट, प्रदीप पाण्डे और पहाड़ संग्रह का आभार। कुछ फोटो उसी दौर में मैंने खींचे थे। हर अध्याय के शुरू में वालेरा पावलोव के रेखांकन की विश्वम्भरनाथ शाह ‘सखा’ द्वारा बनाई गयी पुनर्रचना लगाई गयी है, जिसे ‘साभार पहाड़’ के पहले अंक से लिया गया है। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के प्रकाशन अधिकारी के साथ मैं प्रकाशक अरुण माहेश्वरी के प्रति भी आभार जताता हूँ।
मैं अपने विभिन्न शिक्षकों हुसेन साहब (कैलेन्सी हाई स्कूल, मथुरा), राधा बल्लभ उप्रेती, प्रताप सिंह, धर्मानन्द विष्ट, भैरवदत्त पाठक (गंगोलीहाट) नवीन चन्द्र खर्कवाल (बेरीनाग): जगदीश चन्द्र जोशी मामू, महेन्द्र कुमार रस्तोगी, उमेश चन्द्र पाण्डे, (अलमोड़ा), शाकम्बरी द्विवेदी तथा डी.डी. पन्त (नैनीताल) के साथ अपनी ममकू को याद करता हूँ। दरअसल इन सबने भी मेरा निर्माण किया।
3 अगस्त 2015
– शेखर पाठक
 

अनुक्रम

         शुरुआत / आभार
       1. चिपको का मातृ क्षेत्र
भौगोलिक परिचय, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जैविक परिदृश्य सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता
       2. औपनिवेशिक शासन का आगमन
चतुर उपनिवेशवाद, पारम्परिक जंगलात व्यवस्था का अन्त, उत्तराखण्ड : बदलता जंगलात परिदृश्य, टिहरी रियासत में जंगल
       3. जंगलात की पहली लड़ाई
जंगलों का औपनिवेशिक अपहरण और प्रतिरोध,
स्थानीय पत्रकारिता तथा प्रतिरोध के अंकुर, नयी सदी में जंगलात प्रसंग,
चेतना और प्रतिरोध का रूपान्तरण, बागेश्वर और उसके बाद,
टिहरी रियासत में जंगलात ढंढकों का विकास
       4. उत्तर- औपनिवेशिक जंगलात परिदृश्य
नये दौर में जंगलात, कुमाऊँ जंगलात जाँच समिति (कुजजास)
       5. चिपको के प्रस्फुटन से पहले
हालात : 1962 के बाद, दो महत्त्वपूर्ण प्रसंग, 1970 की अलकनन्दा बाढ़
       6. चिपको की पहली लहर
नयी आवाज़ प्रस्फुटन और विकास, प्रत्यक्ष प्रतिरोध की ओर,
मण्डल से फाटा की ओर, समाज सरकार संवाद, रेणी की ओर,
रेणी के जीवन का एक दिन और उसके पश्चात, रेणी आन्दोलन के बाद, तीन और टहनियाँ, बदरीनाथ आन्दोलन, सोंगघाटी आन्दोलन, अस्कोट-आराकोट अभियान
      7. दूसरी लहर : उत्तरकाशी से अलमोड़ा
उत्तरकाशी में जंगलात आन्दोलन, कुमाऊँ में शुरुआत,
पर्वतीय वन बचाओ संघर्ष समिति, अगली नीलामी, आपात्काल का लागू होना
      8. आपातकाल के बाद तीसरी लहर
उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी का जन्म, नैनीताल में फिर जंगलों की नीलामी,
अट्ठाइस नवम्बर उन्नीस सौ सतहत्तर, चीड़ और साल के बीच अदवाणी का प्रतिरोध,
हल्द्वानी दमन का अगला चरण
     9. चौयी लहर : दमन और प्रतिकार
भ्यूँढार : फूलों की घाटी में पेड़ों का कटान,
चाँचरीधार : दूनागिरि द्वार और गगास जलागम, संस्कृति और संघर्ष,
पन्तनगर हत्याकाण्ड और तीन आपदाएँ, बडियारगढ़ में विद्रोही स्वर,
अलमोड़ा से रंगोड़ी-ध्याड़ी, अलमोड़ा से जनौटी-पालड़ी, चिपको अनेक अभिव्यक्तियाँ, डूंगरी पैन्तोली : महिला बनाम पुरुष और बाँज बनाम आलू
    10. वन अधिनियम 1980 के बाद
जंगलात आन्दोलनों की निरन्तरता,
तीन असाधारण निर्णय, दूधातोली में चिपको, स्वागत, सम्मान और संशय,
टिहरी बाँध विरोधी आन्दोलन, एक साथ लेकिन एक नहीं
    11. चिपको एक पड़ताल
नेतृत्व : बहुक्षेत्रीय और बहुव्यक्तित्व वाला, संगठन, हिस्सेदारी,
कुछ चिपको कार्यकर्ताओं और नेताओं पर एक नज़र
    12. चिपको आर्थिक और पारिस्थितिक
    13. चिपको : महिलाओं और युवाओं का योगदान
    14. चिपको के 40 साल धुंधलाती चमक और सतत काँच
     सन्दर्भ सामग्री
     परिशिष्ट
     फोटो एलबम अनुक्रमणिका
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