उन्माद (भगवान सिंह)

सांप्रदायिक उन्माद को उन्माद की ही एक किस्म के रूप में पकड़ने की कोशिशें हिंदी में बहुत कम हुई हैं- उँगलियों के पोरों पर भी नहीं, सिर्फ उँगलियों पर गिनने लायक। भगवान सिंह का यह उपन्यास शायद पहली बार इतने सारे मानवीय ब्यौरों में जाकर यह काम कर रहा है। दूसरे तमाम पहलू छोड़ भी दें तो इसका यह महत्त्व दस्तावेजी किस्म का है। एक सहज, प्यारी सी प्रेमकथा
हमारे असहज समाज में इतने सारे टकरावों का केंद्र बन जाती है और यह अकेली गुत्थी सुलझाने के क्रम में इतनी सारी उलझी गुत्थियाँ रफ्ता- रफ्ता सुलझती जाती हैं कि ताज्जुब होता है।
सांप्रदायिकता जैसी जटिल समस्या को महज कुछ साजिशों के जरिए व्याख्यायित करने का चलन कम-से-कम साहित्य में नहीं चलते रहना चाहिए। साहित्य तो चीजों को ज्यादा ठोस ढंग से, ज्यादा गहराई में और ज्यादा ब्यौरेवार पकड़ता । 
साहित्य पर यही भरोसा गेटे से कहलवाता है, ‘सारे सिद्धांत धूसर पड़ जाते हैं पर जीवन का वृक्ष हमेशा हरा रहता है।’ सांप्रदायिकता की एक गहरी समझ पर केंद्रित इस उपन्यास में आपको जीवन ‘वृक्ष की हरियाली मिलेगी, उसे समझने के दशकों पुराने धूसर सिद्धांत नहीं।
एक बड़ी चुनौती यह उपन्यास हमारे सामने रखता है- अपने समाज के असहज पहलू को नए सिरे से समझने की चुनौती। अगर आप यह मानकर चलें कि आप दिमागी गुत्थियों से भरे एक असहज समाज में जी रहे हैं तो अनजाने में की गई अपनी ऐसी कई हरकतों से बच सकते हैं, जी किसी को गहरा दुख पहुँचानेवाली और यहाँ तक कि कुछ बड़े विध्वंसों का कारण भी बन सकती हैं। प्रौढ़ता और संवेदना के अद्भुत तालमेल से जनमी यह रचना हमें पहले से ज्यादा प्रौढ़, ज्यादा संवेदनशील बना सकने में सक्षम है।

लेखक परिचय

भगवान सिंह का जन्म, 1 जुलाई 1931, गोरखपुर जनपद के एक मध्यवित्त किसान परिवार में। गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी)। आरंभिक लेखन सर्जनात्मक कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना । 1968 में भारत की सभी भाषाओं को सीखने के क्रम में भाषाविज्ञान और इतिहास की प्रचलित मान्यताओं से अनमेल सामग्री का प्रभावशाली मात्रा में पता चलने पर इसकी छानबीन के लिए स्थान नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, अंशतः प्रकाशित, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, (1973); पुन: इसकी गहरी पड़ताल के लिए शोध का परिणाम आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता लिपि प्रकाशन, नई दिल्ली, (1973)। इसके बाद मुख्य रुचि
भाषा और इतिहास के क्षेत्र में अनुसंधान में और सर्जनात्मक लेखन प्रासंगिक हो गया। इसके बाद के शोधग्रंथों में हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, दो खंडों में, (1987) राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली; दि वेदिक हड़प्पन्स, (1995), आदित्य प्रकाशन, एफ 14/65, मॉडल टाउन द्वितीय, दिल्ली- 110009; भारत तब से अब तक (1996) शब्दकार प्रकाशन, अंगद नगर, दिल्ली-92, (संप्रति) किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली; भारतीय सभ्यता की निर्मिति (2004) इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद; प्राचीन भारत के इतिहासकार, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, (2011); भारतीय परंपरा की खोज, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, (2011); कोसंबी : कल्पना से यथार्थ तक, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली, (2011); आर्य-द्रविड़ भाषाओं का अंतःसंबंध, सस्ता साहित्य मण्डल (2013) ; भाषा और इतिहास, (प्रकाश्य)। संप्रति ऋग्वेद का सांस्कृतिक दाय पर काम कर रहे हैं।

प्रकाशकीय

भगवान सिंह जी का यह ‘उन्माद’ शीर्षक उपन्यास मानव मन की अनेक पर्तों को खोलता है। फ्रायड के मनोविश्लेषण का इस पर असर है और यह मानव मन के भीतरी दबावों-तनावों को सामने लाने में सक्षम है। किताबों में व्यस्त रहने वाला पति अपनी गुणज्ञ पत्नी के गुणों का सम्मान नहीं कर पाता । परिणाम यह होता है कि पति-पत्नी का समर्पण अधूरा-अतृप्त रहता है। ‘भाभीजी’ जैसा पात्र यह ग्रंथि पालकर जी रहा है कि इस घर में कोई ‘इज्जत’ ही नहीं है। कितना ही घर को सँभालो हर स्थिति के बाद बेइज्जती । मनोरुग्णता ने इस उपन्यास के अधिकांश पात्रों को घेरा हुआ है। पी-एच.डी. के शोध का विषय ‘मनोरुग्ण प्राणियों का परिवेश और उसका प्रभाव।’ उपन्यास का आरंभ इसी संकेतात्मक व्यंजना से होता है। धीरे-धीरे उपन्यास मानव मन की जटिलताओं में धँसता-जूझता मिलता है और भक्ति रस का विरेचन प्रभाव भी पाठक के मन को कई तरह से झटके देता है।
इस मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास में जीवन के पके अनुभवों को कमाये सत्यों की प्रतीकात्मक कथा में परोस दिया गया है। चमत्कृत करना भगवान सिंह का उद्देश्य नहीं रहा है, हाँ, जीवन को कई कोणों से प्रस्तुत करना ही उन्हें भाया है। हिंदी उपन्यास साहित्य में इस तरह की अंतर्वस्तु पर बहुत कम उपन्यास लिखे गए हैं। अपने क्षेत्र का यह ऐसा ही अद्भुत उपन्यास है।
मैं इस उपन्यास को अपने पाठक समाज को सौंपते हुए अपार प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे यह भरोसा है कि इस नए विषय पर लिखे उपन्यास का हिंदी जगत् में स्वागत होगा।
कृपादभ पालीकाল’
प्रकाशकार
सचिव
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