प्राचीन भारत के इतिहासकार

संस्कृति का एक ही अर्थ है, कर्मशीलता। वर्क कल्चर । उसमें सभी क्षेत्रों में, बौद्धिक तबकों तक में, गिरावट आई है और मौजमस्ती की तलब बढ़कर गर्हित को भी सह्य और कई बार गौरवशाली बनाने लगा है। कीर्ति चौधरी की एक पंक्ति है : यह कैसा वक्त है कि किसी को कड़ी बात कहो तो भी बुरा नहीं मानता। यह उस दौर की बात है जब उन्होंने ये पंक्तियाँ लिखी थीं। अब उसको इस रूप में पढ़ना होगा कि यह अधोगति का कैसा चरण है कि किसी को बुरी से बुरी बात कहो तो वह गौरव अनुभव करता है। प्रतिभा के अनुरूप अवसर की जिस अनुपलब्धता के कारण भारत का सांस्कृतिक ह्रास इतने लंबे दौर तक बना रहा, उसका विस्तार हो रहा है और लोग प्राप्य को इतर योग्यताएँ विकसित करके हासिल करने के लिए उतावले दिखाई देते हैं। शब्द और अर्थ के बीच, कथनी और व्यवहार के बीच विरोध भाषा की अपनी क्षमता को ग्रस्त कर चुका है। हम जिन विषयों पर चिंतित होते हैं, वह चिंता मंच तक रहती है, उसके बाद दूर हो जाती है। अपने ऊपर से विश्वास इतना कम हो गया है कि सरोकार तक अभिनय का हिस्सा लगते हैं।
भगवान सिंह का जन्म, 1 जुलाई 1931, गोरखपुर जनपद के एक मध्यवित्त किसान परिवार में। गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी)। आरंभिक लेखन सर्जनात्मक कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना । 1968 में भारत की सभी भाषाओं को सीखने के क्रम में भाषाविज्ञान और इतिहास की प्रचलित मान्यताओं से पता चलने पर अनमेल सामग्री का प्रभावशाली मात्रा इसकी छानबीन के लिए स्थान नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, अंशतः प्रकाशित, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, (1973); पुनः इसकी गहरी पड़ताल के लिए शोध का परिणाम आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता लिपि रुचि प्रकाशन, नई दिल्ली, (1973)। इसके बाद मुख्य भाषा और इतिहास के क्षेत्र में अनुसंधान में और सर्जनात्मक लेखन प्रासंगिक हो गया। इसके बाद के शोधग्रंथों में : हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, दो खंडों में, (1987) राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली; दि वेदिक हड़प्पन्स, (1995), आदित्य प्रकाशन, एफ 14/65, मॉडल टाउन द्वितीय, दिल्ली-110009; भारत तब से अब तक (1996) शब्दकार प्रकाशन, अंगद नगर, दिल्ली-92, (संप्रति) किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली; भारतीय सभ्यता की निर्मिति (2004) इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद: प्राचीन भारत के इतिहासकार, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, (2011); भारतीय परंपरा की खोज, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, (2011): कोसंबी : मिथक और यथार्थ, आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, नई दिल्ली, (2011); भाषा और इतिहास, (प्रकाश्य)। संप्रति ऋग्वेद का सांस्कृतिक दाय पर काम कर रहे हैं।

प्रकाशकीय

भगवान सिंह की यह पुस्तक प्राचीन भारत के इतिहास पर काम करनेवाले प्रमुख इतिहासकारों के मूल्यांकन पर आधारित है। हम लोग पश्चिम की तरफ टकटकी लगाए रहते हैं और अपने देश, अपनी भाषा में काम करनेवाले मनीषियों की तरफ झाँक भी नहीं पाते। भगवान सिंह प्राचीन इतिहास और भारतीय वाङ्मय के मर्मज्ञ हैं । उन्होंने इस पुस्तक में वासुदेवशरण अग्रवाल, राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, डी.डी. कोसंबी आदि विद्वानों की इतिहास-दृष्टि और इतिहास विवेक का तटस्थ मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक का पहला लेख और भी महत्त्वपूर्ण है। ‘साहित्य का अभिलेख के रूप में पाठ’ शीर्षक लेख इतिहास के साहित्यिक स्रोतों की सीमा और संभावनाओं का दिक्दर्शन कराता है। निःसंदेह यह पुस्तक भारतीय संस्कृति और चिंतनधारा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में तारतम्यता प्रदान करती है।
-सचिव

अनुक्रम

आमुख
साहित्य का अभिलेख के रूप में पाठ
वासुदेवशरण अग्रवाल : इतिहास की साधना रामविलास शर्मा : सांस्कृतिक मूलाधार की तलाश
भगवतशरण उपाध्याय
राहुल सांकृत्यायन से रामविलास शर्मा का मतभेद बाणभट्ट की आत्मकथा : रचना में इतिहास का रूप
द्विवेदी जी की इतिहासदृष्टि
गोविंद चंद्र पांडे : वैदिक संस्कृति का आत्मवादी पाठ
माइकेल विट्ज़ेल : इतिहास की राजनीति
कोसंबी : भाववादी इतिहास के जनक
प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन की दृष्टियाँ
भारतीय संस्कृति : कल से आज तक

आमुख

इस पुस्तक को किसी पूर्वयोजना के अनुसार नहीं लिखा गया। संपादकों ने इतिहासकारों की शतवार्षिकी के अवसर पर जिन पर लिखने का आग्रह किया मैंने अपनी योग्यता के अनुसार उन पर लिखा। बाद में लगा, फुटकल और कुछ दृष्टियों से अपूर्ण होते हुए भी ये निबंध प्राचीन भारतीय इतिहास की समझ को प्रखर करने में सहायक है और मैंने इसे इस पुस्तक का आकार दिया। हिंदी पत्रों के संपादकों को केवल हिंदी में लिखनेवालों का ध्यान था और होना भी चाहिए। अधिक संतोष होता यदि उन इतिहासकारों पर भी लिखा होता जो हिंदी में नहीं लिखते थे, परंतु अंग्रेजी के साथ अपनी भाषा में भी लिखते थे। न किसी दूसरे को सूझा, न मुझे इसका समय मिला। इस दृष्टि से इसे एक अपूर्ण कृति कहा जा सकता है। परंतु मेरे एक मित्र का कहना था कि पूर्णता तो स्रष्टा की सृष्टि तक में नहीं है। यह निठल्लों की ओट है। पूर्णता एक आदर्श है जिसकी ओर हम बढ़ते हैं और बढ़ने के साथ इसकी दूरी भी बढ़ती जाती है। हम इस तक पहुँच ही नहीं सकते, परंतु यह संकल्पना न हो तो हम रसातल को चले जाएँगे। विधाता भी पूर्ण सृष्टि करना चाहता तो सृष्टि होती ही नहीं।
ये लेख आलोचना, तद्भव, वर्तमान साहित्य और कसौटी में प्रकाशित हुए थे। ‘भारतीय संस्कृति-कल आज और कल’ इतिहासबोध, इलाहाबाद द्वारा आयोजित प्रथम कोसंबी स्मारक व्याख्यान माला के अवसर पर पढ़ा गया था और हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहासदृष्टि उनकी शतवार्षिकी के अवसर पर बनारस में आयोजित गोष्ठी में पढ़ा गया था। हम उन सभी पत्रों के आभारी हैं जिन्होंने इन लेखों को लिखने के लिए प्रेरित किया और उन्हें प्रकाशित किया। हमारा विशेष आभार ‘सस्ता साहित्य मंडल’ के सचिव डॉ. इंद्रनाथ चौधरी के प्रति है जिन्होंने इसके प्रकाशन में विशेष रुचि दिखाई और इसे इतने सुरुचिपूर्ण रूप में प्रकाशित किया।
भगवान सिंह
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