श्री महाकालेश्वर उज्जैन (Shri Mahakaleshwar Ujjain)

श्रीमहाकाल क्षेत्र (उज्जैन) सभी प्रकार के पापों का नाश करने के कारण आदिक्षेत्र के नाम से विख्यात है। मातृकाओं के यहाँ निवास होने से इसे ‘पीठ’ भी कहते हैं। यह क्षेत्र शंकर भगवान का प्रिय व नित्य निवास होने के कारण, महाकालवन व विमुक्ति क्षेत्र भी कहा जाता है। इस श्रीमहाकाल क्षेत्र का निर्माण भगवान शिव ने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये किया है।
प्रभु महाकाल वन में लिंग विग्रह में विराजित हैं। इन श्रीमहाकाल के कारण ही शिप्रा का प्रवाह चल रहा है। श्रीमहाकाल द्वादश ज्योतिर्लिंगों में मुख्य हैं। लेखक ने अनेक अध्यायों द्वारा उज्जैन के तीर्थों व उसकी महिमा का परिचय कराया है। भगवान शिव के विभिन्न लिंगों का भी वर्णन करते हुए पाठकों के लिये अच्छी सामग्री प्रस्तुत की है। महाशक्ति के इक्कावन शक्तिपीठों का परिचय करवाने के साथ उनकी सूची भी साथ जोड़ी है। इसके साथ ही, कालभैरव का भी संक्षिप्त ज्ञान हो सके इसलिये एक छोटे अध्याय द्वारा उनका परिचय कराया है। श्रीमहाकाल की मंगल प्रार्थना आदि जोड़कर पुस्तक को पठनीय बना दिया है। आप श्रीमहाकाल व उनकी नगरी का वर्णन पढ़कर- श्रवणकर भगवान श्रीमहाकाल का आशीर्वाद व पुण्य प्राप्त कर सकते हैं।
आप वर्तमान में ‘धर्म यात्रा महासंघ’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं एवं अन्य अनेक धर्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के संस्थापक हैं।
आपकी पुस्तक ‘सेवा का सच’ का विमोचन तत्कालीन प्रधनमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने अपने कर-कमलों से किया। ‘धर्म-प्रवाह’ नामक मासिक पत्रिका आपके सौजन्य से प्रकाशित होती है।
आपने दिल्ली प्रदेश की सातों संसदीय सीटों पर भारतीय जनता पार्टी को भारी बहुमत से जीत दिलाकर राजनैतिक हलकों में अपनी नेत्तृत्व-क्षमता की सनसनी फैला दी। अप 5 वर्षो के लिए भारतीय जनता पार्टी, दिल्ली प्रदेश, के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष थे। आप विधानसभा, दिल्ली प्रदेश, के सदस्य भी रहे। आपका राजनैतिक जीवन सादगी, ईमानदारी और सेवा-भाव से प्रेरित है।

भूमिका

स्वकथ्य
शुभाशंसनम्
प्रशस्ति
आभार
अनुक्रम
1. उज्जैन: एक परिचय
2. उज्जैन की दर्शनीयता
3. दिव्य शिप्रा
4. सिंहस्थ महाकुंभ
5. तंत्र
6. शिव रहस्य
7. लिंग रहस्य
8. ज्योतिर्लिंग कथा
9. प्रतिनिधि शिवलिंग
10. शिवपूजन और शिवभक्ति
11. शक्तिपीठ
12. अन्य सिद्ध शक्तिपीठ
13. भैरव
14. श्रीमहाकाल
15. श्रीमहाकाल-पूजन साहित्य
संदर्भ ग्रन्थ-सूची

भूमिका

श्री महाकाल क्षेत्र सभी प्रकार के पापों का नाश करने के कारण आदि-क्षेत्र के नाम से विख्यात है। मार्तृकाओं के यहाँ निवास होने से इसे ‘पीठ’ भी कहते हैं। यह क्षेत्र श्री महाकाल का प्रिय व नित्य निवास होने के कारण क्षेत्र को श्मशान, महाकालवन व विमुक्ति क्षेत्र भी कहा जाता है। इस सिद्ध क्षेत्र में भगवान शिव नित्य क्रीड़ा करते हैं। अपने देश के पुण्य क्षेत्रों में श्री महाकाल के इस प्रिय क्षेत्र को श्रेष्ठता प्राप्त है।
जब भगवान शिव विभिन्न स्थानों से घुमते हुए इस क्षेत्र में पधारे तो यह वन घना तथा जीव-जओं से युक्त था। वृक्षों ने विनम्रता पूर्वक अपने पुष्प शिव के चरणों में समर्पित किये तो भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने को कहा। तब वृक्षों ने प्रार्थना पूर्वक निवेदन किया कि यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो आप यहीं सदा निवास करने की कृपा करें। शिव ने वृक्षों के निवेदन को स्वीकार करते हुए वृक्षों को आशीर्वाद दिया कि वर्षा, ताप, जल, अग्नि, वज्रपात, शीत आदि किसी से भी तुम्हें रोग नहीं होगा।
भगवान शिव महाकाल क्षेत्र में विद्यमान हैं, यह जानकर देवता भगवान शंकर के दर्शन की मनोकामना लेकर महाकाल क्षेत्र में आये परन्तु उन्हें शिव दर्शन नहीं हुये। देवताओं ने इसका कारण ब्रह्मदेव से पूछा, ब्रह्मदेव ने भगवत् दर्शन करने हेतु देवताओं को दीक्षित होकर तप करने को कहा। देवताओं ने ब्रह्मदेव से दीक्षा लेकर तप किया, श्री महाकाल रूप शिव के दर्शन उन्हें प्राप्त हुये। देवताओं ने दर्शनीय प्रभु शिव की अनेक प्रकार से प्रार्थना की।
देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा कि जैसे ही मैंने महाकाल क्षेत्र में प्रवेश किया मेरे हाथ में जो कपाल रहता था वह मैंने आप लोगों के कल्याण के लिये फेंक दिया। फेंकने का एक
महत्त्वपूर्ण कारण था। देवताओं! तुम तपस्या में रत थे, उस समय ‘हय’ नामक दैत्य के निशाचर तुम देवताओं का तप भंग करने हेतु सक्रिय थे परन्तु मेरे द्वारा फेंके कपाल से भयंकर विस्फोट हुआ, इससे पृथ्वी भी कांप उठी और ‘हय’ दैत्य के सभी निशाचर मृत्यु को प्राप्त हो गये।
ब्रह्मदेव सहित सभी देवताओं ने भगवान शिव की वन्दना की, इस पर सदाशिव ने उन्हें वर मांगने को कहा। तब देवताओं ने ऐश्वर्य मांगा और मरे हुए निशाचरों के लिये अक्षय धाम की मांग की। प्रभु शिव ने देवताओं से कहा कि मेरे द्वारा मारे गयों की कभी भी दुर्गति नहीं होती है। देवताओं! वृक्षों के आग्रह से मैं यहाँ नित्य निवासी बना और तुम सभी की तपस्या के कारण इस महाकाल वन को दो नाम प्राप्त होंगे, एक तो गुह्यवन व दूसरा श्मशान।
भगवान शंकर ने इस क्षेत्र को बसाया। श्रेष्ठ मुनिगण के लिये श्मशान क्षेत्र है। भगवान शिव के नित्य निवास के कारण यह क्षेत्र महाकाल वन के नाम से विख्यात हुआ है। ऐसे महाकाल क्षेत्र में शिव नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं। यह क्षेत्र तपस्थली होने के कारण बिना तप के शिव का साक्षात्कार संभव नहीं है।
सत्ययुग में मानव-देवता तप साधना में रत थे, इसलिए सभी को भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन होते थे। त्रेता में धर्मपरायण, तपस्वी, ब्रह्मचारी ही भगवान शिव के दर्शन करते थे। कलियुग में ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न, नित्य तपस्वी पुरुषों को ही देवाधिदेव महादेव के दर्शनों का लाभ मिल पाता है। इस महाकाल क्षेत्र का निर्माण भगवान ने भगवत् भक्त मरणशील प्राणियों पर अनुग्रह करने के लिये किया है। अव्यक्त प्रकृति नित्य (अनादि) एवं अजन्मा है तथा पुरुष उसका अधिष्ठाता है। पुरूष व्यक्ति और नित्य है। शिव सबके कारण हैं, प्रधान या प्रकृति त्रिगुणात्मक हैं। भगवान रूद्र का पुरूष के साथ साधर्म्य है। चैतन्य रूप-धर्म दोनों में समान रूप से है, परन्तु प्रधान तत्त्व जड़ होने के कारण उनसे विपरीत धर्मवाला है। वह रूद्र की इच्छा (संकल्प-शक्ति) के अनुसार भौतिक जगत का कारण होता है। सर्वत्र रूद्र में ही कर्तृत्व है, पुरूष में कर्तृत्व का अभाव है और प्रधान प्रकृति में अचेतनता है। जो विलक्षणता है, उसको इन तीनों का विवेक तत्त्व-ज्ञान कहा गया है। कार्य और कारण दोनों तत्त्वान्तर से मुक्त होते हैं। प्रेरक तत्त्व जानकर रूद्रतत्त्वार्थ का विचार करने वाले पुरूष तत्त्वों की संख्या निश्चित करते हैं।
सांख्य मत में रूद्र के स्वरूप का यह चिन्तन ही विद्वानों द्वारा आध्यात्मिक सांख्य भक्ति बतायी गयी है। इसी प्रकार योगी संयम धारण कर कल्पना में प्रभु की मूर्ति को हृदय में धारण करके भक्तिपूर्वक ध्यान करता है तो उस योगी के द्वारा किये जाने वाले इस ध्यान को भगवान रूद्र की ‘पराभक्ति’ कहते हैं। जो इस प्रकार भगवान शिव की भक्ति करता है, वह रूद्रभक्त कहलाता है।
भगवान की भक्ति अनेक नामों से की जाती है। वे प्रभु स्वयंभूव हैं। स्वयं की इच्छा से भक्तों के कल्याणार्थ जगत में प्रकट हुये हैं। वे महादेव के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि वे ही देवों में महानता को प्राप्त देव हैं। वे गौरीशंकर हैं, क्योंकि गौरी ही उनकी शक्ति का स्रोत हैं। उन्हें भक्त भोलेशंकर व आशुतोष रूप में भी ध्याते हैं। भक्तिपूर्वक अल्प तप पर भी उस प्रभु का साक्षात्कार होता है। वे रूद्र रूप में प्रलय का निर्माण कर सम्पूर्ण ब्रह्मांडों को उदरस्त कर ध्यान-मुद्रा में लीन हो जाते हैं। वे प्रभु महाकाल हैं, उन्होंने भक्तों व देवों की रक्षा करने हेतु अनेक दानवों को कालकवलित किया है। ऐसे प्रभु महाकाल वन में लिंग रूप में उज्जैन में विराजित हैं। इन महाकाल के कारण ही क्षिप्रा का प्रवाह चल रहा है। यह महाकाल द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक मुख्य लिंग हैं। महाकाल के अवंतिका में विराजित होने से यहाँ पर बारह वर्ष में कुम्भ का आयोजन होता है तथा 6 वर्ष में अर्द्ध कुम्भ लगता है। उज्जैन के अनेक नाम-रूप बने बिगड़े हैं। यहाँ कभी चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य शासक रहे हैं। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जैन से आरम्भ हुई, यह माना जाता है।
इस पुस्तक के लेखक ने उज्जैन के इतिहास का भी आद्योपान्त अध्ययन करके उसे अपनी लेखनी से लिखा है। विदेशी आक्रमण व स्वदेशी सत्ता का इतिहास भी उकेरा है। अपने अनेक अध्यायों द्वारा उज्जैन के तीर्थ व उसकी महिमा का भी परिचय कराया है। भगवान शिव के विभिन्न लिंगों का भी वर्णन करते हुए पाठकों के लिये अच्छी सामग्री प्रस्तुत की है।
महाशक्ति के इक्कावन शक्तिपीठों का परिचय करवाने के साथ उनकी सूची भी साथ जोड़ी है। इसके साथ ही भैरव, कालभैरव का भी संक्षिप्त ज्ञान हो सके, इसलिये एक छोटे अध्याय द्वारा उनका भी परिचय कराया है। महाकाल की मंगल प्रार्थना आदि जोड़कर पुस्तक को पठनीय बना दिया है। मैं मानता हूँ कि लेखक ने महाकाल व उनकी नगरी का वर्णन करके भगवान महाकाल का आशीर्वाद व पुण्य प्राप्त किया है।
अपनी शुभकामनाओं सहित सफलता की कामना करता हूँ।
धर्मनारायण शर्मा
केन्द्रीय मंत्री,
विश्व हिन्दू परिषद, नई दिल्ली

प्रशस्ति

अथ श्री द्वादश ज्योतिर्लिंग महारूद्राभिषेक

धर्मयात्रा महासंघ ने आशुतोष भगवान शिव की अनुकम्पा से वर्तमान बागपत जिले के अंतर्गत आने वाले पूरामहादेव शिव मंदिर का रूद्राभिषेक के समय धर्मयात्रा महासंघ के संरक्षक माननीय श्री अशोक सिंघल जी मुख्य अतिथि के रूप में पधारे साथ में महासंघ के अध्यक्ष लब्ध प्रतिष्ठित समाजसेवी, धर्मनिष्ठ श्री मांगेराम गर्ग जी भी साथ में थे । पुरामहादेव के अभिषेक से पूर्व 17.7.1997 से 20.7.1997 तक शिवपुराण की कथा सम्पन्न हुई। कथा व्यास थे पिलखुआ निवासी धर्मनिष्ठ उदभट्ट विद्वान श्री ओमप्रकाश शर्मा जी जिनके श्रीमुख से निकली शिवपुराण की गंगा में सभी ने डूबकी लगाई।
कथा के समापन के बाद 21.7.1997 को रूद्राभिषेक के बाद भगवान आशुतोष की अनुकम्पा से धर्मयात्रा महासंघ ने द्वादश ज्यारेतिर्लिंगों पर रूद्राभिषेक करने की योजना बनाई । योजना को मूर्तरूप देने के लिए गुजरात प्रांत में विद्यमान सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के साथ ही प्रारंभ हुई द्वादश ज्योतिर्लिंग रूद्राभिषेक की नियमित श्रश्खला ।
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के रूद्राभिषेक के बाद धर्मयात्रा महासंघ ने अभिषेक की श्रश्खला को आगे बढाते हुए महाकाल
ज्योतिर्लिंग उज्जैन में अभिषेक प्रारंभ किया। इस अभिषेक में 131 यजमानों ने भाग लिया। इस अभिषेक में सम्पूर्ण भारत से यजमसन पधारे थे और इस अवसर पर महाकाल की नगरी उज्जैनी ध्वज पताकाओं तोरणद्वारों से सुशोभित की गई थी। उज्जैन के अभिषेक के साथ-साथ धर्मयात्रा महासंघ ने विभिन्न अनुष्ठान, सेवाकार्य और पँचकोसी यात्राओं को पुनः जीवन्त करने के लिए योजना बनायीं जिसे अभिषेक में पधारे सभी यजमानों ने अपना सहयोग प्रदान किया और संकल्प लिया कि हमें जो भी कार्य मिलेगा उसमें हम पूर्णमागेन सहभागिता प्रदान करेंगे। कई यात्राएँ उज्जैन और उज्जैन के समीपस्थ क्षेत्रों से जैसे चौरासी महादेव, पंचकोसी परिक्रमा, भगवान आशुतोष भगवान महाकाल की सवारी नगर में निकलती है उसमें धर्मयात्रा महासंघ, तीर्थपुरोहित महासंघ पूर्णरूप से सहभागी रहता है ।
महाकाल के निवासी तीर्थपुरोहितों की एक अखिल भारतीय बैठक में संकल्प लिया के हम महाकाल में पधारे हुए यजमानों/तीर्थयात्रियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को समूल नष्ट कर सद्भावना की मिसाल प्रस्तुत करेंगे । पवित्र क्षिप्रा व अन्य सभी नदियों को प्रदुषण मुक्त करने का भी संकल्प लिया गया। जिसकी महाकाल क्षेत्र के सभी पत्रकार बंधुओं ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा कर संबंधित लेख दैनिकों में प्रस्तुत किए।
इन अभिषेकों में देशभर के व्यापारी, समाजसेवी व धर्मनिष्ठ बंधुओं ने भाग लिया। सभी ज्योतिर्लिंगों पर कम से कम 108 यजमानों ने धर्मलाभ कमाया ।
भवदीय
सुनील कुमार शर्मा
पालन्दे जी महाराज (वाराणसी) के प्रति में श्रद्धावनत विशेष

आभार

पुराण मर्मज्ञ एवं कथा-प्रवाचक वेदमूर्ति श्री विश्वनाथ नारायण प्रकट करता हूँ, जिन्होंने स्वयं अपने कर-कमलों द्वारा यज्ञारंभ करने के लिए अपनी श्री उपस्थिति की पूर्वानुमति दी, जिससे उनके महापांडित्य
में इस श्रीयज्ञ के शुभारम्भ की योजना निर्मित हो पाई।
श्री के. के. शर्मा जी, केंद्रीय मंत्री, वरिष्ठ सदस्य,
महासंघ एवं संपादक, ‘धर्म-प्रवाह’ के प्रति मैं हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, जिनसे मैंने इस संदर्भ ग्रंथ के संपादन में महनीय सहयोग पाया।
श्री मांगीलाल बाहेती जी, एम. पी. पब्लिशर्स एण्ड सप्लायर्स, उज्जैन के प्रति मैं हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ, जिन्होंने मुझे संदर्भ सामग्री की सम्यक आपूर्ति की। उज्जैन के प्रतिष्ठित ज्योतिषाचार्य श्री आनंद शंकर व्यास जी के प्रति भी मैं हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने मुझे यथासमय यथोच्चित सुझाव दिए ।
धर्मयात्रा महासंघ के श्री धर्म नारायण शर्मा जी, माननीय केन्द्रीय मंत्री, विश्व हिन्दू परिषद के प्रति मैं हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ, जिन्होंने इस संदर्भ ग्रंथ की भूमिका लिखकर अनुगृहित किया है।
माननीय श्री अशोक सिंहल जी (संरक्षक, धर्मयात्रा महासंघ), श्री चम्पतराय जी (केन्द्रीय महामंत्री, विहिप), श्री सुनील कुमार शर्मा (संयोजक, ध.या.म.), श्री अनन्तदत्तात्रेय जोशी (अध्यक्ष, तीर्थपुरोहित महासंघ), श्री प्रयागनाथ चतुर्वेदी (महामंत्री, ती.पु.म.), श्री नरेन्द्र कुमार बिन्दल (महामंत्री, ध.या.म.), श्री प्रदीप गुप्ता (कोषाध्यक्ष, ध.या.म.), श्री प्रदीप अग्रवाल (मन्त्री, ध.या.म.), श्री प्रमोद अग्रवाल (अध्यक्ष, ध.या.म., दिल्ली), श्री ओमप्रकाश गुप्ता (महामंत्री, ध.या.म., दिल्ली), आचार्य श्री शेखर जी (संरक्षक, ध.या.म., मालवा प्रांत), श्री जीवनलाल दिसावल (अध्यक्ष, ध.या.म., मालवा प्रांत), श्री अशोक कोटवानी (महामंत्री, ध.या.म., मालवा प्रांत), श्री अशोक कुमार धावई (उपाध्यक्ष, ध.या.म., मालवा प्रांत), श्री शिवप्रसाद शर्मा (मन्त्री, ध.या.म., प्रांत), श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी (महामंत्री, ध.या.म., उज्जैन महानगर) के प्रति उनके विविध सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ।
विक्रम श्री श्रीनिवास रथ, पूर्वतन आचार्य, संस्कृत अध्ययनशाला, विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्रति मैं हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ, जिनके बोधगम्य ‘शुभाशंसनम्’ प्रबंध ने इस ग्रंथ (शशि) की कलाओं को पूर्णता दी।
इनके अतिरिक्त ऐसे नाना विद्वानों तथा धर्माचार्यों का जिनको मैंने कालान्तर में पढ़ा-सुना, मैं विशेष आभारी हूँ। मैं क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैं आप विद्वजनों के नाम व शोध-प्रबन्धों के नाम स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ।
श्री महाकालेश्वर मंदिर अनुसंधान विभाग, उज्जैन तथा बुद्धिजीवी एवं शोधकर्ताओं: डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. गिरीशचन्द्र त्रिपाठी, अधिवक्ता श्री नागमणि राय, श्री गोपालजी गुप्त तथा संचार माध्यमों एवं वीकिपिडिया के प्रति मैं विशेष आभार प्रकट करता हूँ।
श्री बी.पी. गर्ग एवं अमित गर्ग, ज्ञान पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली के प्रति भी मैं विशेष आभार प्रकट करता हूँ, जिन्होंने इस पवित्र धार्मिक पुस्तक को सम्यक प्रकाशित किया।
मांगेराम गर्ग
नई दिल्ली
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